Friday, April 17, 2020

NEW WORLD ORDER - ACTION PLAN

NEW WORLD ORDER - ACTION PLAN
First and last action plan based on universal truth-theory for the rebirth of the world / new world.

नई दुनिया आदेश - कार्रवाई योजना
विश्व के पुनर्जन्म/नये विश्व के लिए सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त आधारित प्रथम एवं अन्तिम कार्य योजना
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जब सभी सम्प्रदायों को धर्म मानकर हम एकत्व की खोज करते हैं तब दो भाव उत्पन्न होते हैं। पहला-यह कि सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखें तब उस एकत्व का नाम सर्वधर्मसमभाव होता है। दूसरा-यह कि सभी धर्मों को छोड़कर उस एकत्व को देखें तब उसका नाम धर्म निरपेक्ष होता है। जब सभी सम्प्रदायों को सम्प्रदाय की दृष्टि से देखते हैं तब एक ही भाव उत्पन्न होता है और उस एकत्व का नाम धर्म होता है। इन सभी भावों में हम सभी उस एकत्व के ही विभिन्न नामों के कारण विवाद करते हैं अर्थात्् सर्वधर्मसमभाव, धर्मनिरपेक्ष एवं धर्म विभिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न नाम के द्वारा उसी एकत्व की अभिव्यक्ति है। दूसरे रुप में हम सभी सामान्य अवस्था में दो विषयों पर नहीं सोचते, पहला-वह जिसे हम जानते नहीं, दूसरा-वह जिसे हम पूर्ण रुप से जान जाते हैं। यदि हम नहीं जानते तो उसे धर्मनिरपेक्ष या सर्वधर्मसमभाव कहते हैं जब जान जाते हैं तो धर्म कहते हैं। इस प्रकार विश्व मानक-शून्य (WS-0) : मन की गुणवत्ता का विश्व मानक श्रृखंला उसी एकत्व का धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव नाम तथा कर्मवेद-प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेदीय श्रृंखला उसी एकत्व का धर्मयुक्त नाम है तथा इन समस्त कार्यों को सम्पादित करने के लिए जिस शरीर का प्रयोग किया जा रहा है उसका धर्मयुक्त नाम-लव कुश सिंह है तथा धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्मसमभाव सहित मन स्तर का नाम विश्वमानव है जब कि मैं (आत्मा) इन सभी नामों से मुक्त है। 
लव कुश सिंह विश्वमानव
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पी.एम. बना लो या सी.एम या डी.एम,
शिक्षा पाठ्यक्रम कैसे बनाओगे?
नागरिक को पूर्ण ज्ञान कैसे दिलाओगे?
राष्ट्र को एक झण्डे की तरह,
एक राष्ट्रीय शास्त्र कैसे दिलाओगे?
ये पी.एम. सी.एम या डी.एम नहीं करते,
राष्ट्र को एक दार्शनिक कैसे दिलाओगे?
वर्तमान भारत को जगतगुरू कैसे बनाओगे?
सरकार का तो मानकीकरण(ISO-9000)करा लोगे,
नागरिक का मानक कहाँ से लाओगे?
सोये को तो जगा लोगे,
मुर्दो में प्राण कैसे डालोगे?
वोट से तो सत्ता पा लोगे,
नागरिक में राष्ट्रीय सोच कैसे उपजाओगे?
फेस बुक पर होकर भी पढ़ते नहीं सब,
भारत को महान कैसे बनाओगे?
अनन्त ब्रह्माण्ड
के
अनगिनत सौर मण्डल
में से एक
इस सौरमण्डल
के आकार में पाँचवें सबसे बड़े ग्रह पृथ्वी
के मानवों को
पूर्ण
एवं
सत्य-शिव-सुन्दर
बनाने हेतु
विचारार्थ
अन्तिम अवतार - कल्कि महाअवतार
द्वारा
समर्पित

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ये कथा है महाकाल की
परमार्थ की, यथार्थ की, सत्यार्थ की
दृश्य स्वार्थ की
अवतारों की है ये कहानी


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आँठवें अवतार श्रीकृष्ण के मुख से निकला और महर्षि व्यास कृत ”गीता“ में 18 अध्याय हैं। इस पुस्तक में भी 18 अध्याय हैं। अब वह समय आ गया है कि कालानुसार ”गीता की उपयोगिता“ और ”उपयोगिता की गीता“ पर विचार हो, जिससे आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विरासत के आधार पर ”एक भारत - श्रेष्ठ भारत“ तथा ”नया भारत "(New India)" के निर्माण का मार्ग निर्धारण हो सके
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(द्वापर युग में आठवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य ”नवसृजन“ के 
प्रथम भाग ”सार्वभौम ज्ञान“ के शास्त्र ”गीता“ के बाद कलियुग में 
द्वितीय और अन्तिम भाग ”सार्वभौम कर्मज्ञान“ और ”पूर्णज्ञान का पूरक शास्त्र“)

                                             पूर्ण ज्ञान में प्रमाण पत्र 
                                            (Certificate in Complete Knowledge-CCK)
                                            ईश्वर शास्त्र व व्यापार ज्ञान में प्रमाण पत्र
                                      (Certificate in Godics & Business Knowledge-CGBK)
                                            अवतार ज्ञान में प्रमाण पत्र 
                                            (Certificate in Avatar Knowledge-CAK)
                                            गुरू ज्ञान में प्रमाण पत्र 
                                            (Certificate in Guru Knowledge-CGK)
                                           संस्थागत धर्म में डिप्लोमा 
                                           (Diploma in Institutional Religion-DIR)
                                           पूर्ण शिक्षा में स्नातक 
                                           (Bachelor in Complete Education-BCE)
                                            पूर्ण शिक्षा में परास्नातक 
                                           (Master in Complete Education-MCE)
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क्या आप सच में ”भगवान“ के पुजारी हैं 
और 
”भगवान“ के अनन्य भक्त हैं?
क्या आप के दिल में ”अल्लाह“ हैं 
और 
आप दिल से ”नमाज“ अदा करते हैं?
क्या आप कभी भी असीम श्रद्धा से ”गुरूद्वारे“ में मत्था टेकते हैं 
और 
”वाहेगुरू“ को चाहते हैं?
तो 
अच्छी मानव जाति को बचाने के लिए 

देश को साफ व स्वच्छ बनाने के लिए हर कोशिश करें।


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इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्न्यैतदशेषेणयथेच्छसितथाकुरू।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-18, श्लोक-63)

अर्थात् - 
मैंने तुम्हें जो बताया, वह सब से बड़ा रहस्य है। इस पर भलीभाँति विचार कर तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा करो।

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Monday, April 13, 2020

फिल्म एवं टी0 वी. सिरियल

फिल्म एवं टी0 वी. सिरियल

फिल्में भारतीय समाज से एक अलग तरह का जुड़ाव रखती हैं और फिल्मों के समाज से इस जुड़ाव के पीछे महतवपूर्ण भूमिका निबाहती है उनकी कथा और पटकथा. काल् क्रम से हम अगर फिल्मों के इतिहास पर नजर डालें तो स्पष्ट पता चलता है कि जिन फिल्मों की पटकथा कसी हुई और मौलिक होती है, दर्शकों से उसे भरपूर प्यार मिलता है। इस लिहाज से पटकथा लेखन फिल्म निर्माण का सबसे मूलभूत और आवश्यक पहलु है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है. यह भी सर्वविदित है कि हिंदी फिल्म उद्योग के पास योग्य लेखों की हमेशा से कमी रही है इसलिए जिस पैमाने पर यहाँ फिल्म निर्माण होता है उस लिहाज से हमारा सिनेमा समृद्ध नहीं है. आज भी भारतीय परिप्रेक्ष्य की समझ और नवीन विचारों के साथ पटकथा लिखने वालों में कुछ गिने चुने नाम हैं इसलिए पटकथा लेखन को एक व्यवसाय के रूप में लेने की कोशिश युवाओं को जरुर करनी चाहिए साहित्यिक लेखन और फिल्म लेखन दो अलग अलग विद्याएँ हैं साहित्य जगत के बड़े नाम फिल्म पटकथा लेखन में कभी जम नहीं पाए तो सिर्फ उसका यही कारण था कि वे भावों के प्रवाह को फिल्म माध्यम के अनुरूप ढाल नहीं पाए. टीवी सीरियल हो या फिल्म और थियेटर...इनकी नींव में होती है, राइटिंग यानी लेखन। फिल्म और टेलिविजन जगत में जो फिल्मांकन (शूटिंग) किया जाता है, या थियेटर में जो भी मंच पर पेश आता है, उसे पहले कागज पर इस तरह लिखा जाता है, ताकि निर्देशक के सामने एक-एक सीन जीवित हो जाए। फिल्म, या टीवी प्रोग्राम के लिए ये कार्य निम्नलिखित तीन चरणों में किया जाता है। 
1. पहले कहानी लिखी जाती है, फिर 
2. स्क्रीनप्ले या पटकथा तैयार की जाती है, और अंत में 
3. डायलॉग या संवाद लखे जाते हैं। 
कहानी, पटकथा और संवाद जितने मजबूत होंगे, शूटिंग और उसके बाद होने वाला पोस्ट प्रोडक्शन वर्क उतना ही आसान रहेगा।
जहां लेखक और साहित्यकारों का वास्ता कागज और कलम तक सीमित होता है, वहीं टीवी प्रोग्राम और फिल्म लिखने वालों को अपनी कला को परफॉर्मिंग आर्ट में तब्दील करना होता है। उन्हें वो लिखना होता है, जिसे परदे पर सही ढंग से उतारा जा सके, इसीलिए फिल्म या टीवी लेखक के लिए इन दोनों माध्यमों की जानकारी होना जरूरी है। लिखते वक्त उन्हें परदे पर उतारे जा सकने वाले दृश्यों की सीमाओं को समझना होता है, फिल्म के बजट को ध्यान में रखना होता है। किसी फिल्म में स्क्रिप्ट का महत्व ये है, कि कई बार घटिया स्क्रिप्ट होने की वजह से बड़े से बड़े बजट और नामी सितारों से लदी हुई फिल्म फ्लॉप हो जाती है। दूसरी तरफ एक मजबूत स्क्रिप्ट को कसे हुए डायरेक्शन के साथ परदे पर उतारा जाए, तो छोटे कलाकारों और मामूली बजट वाली फिल्में भी दर्शकों के दिल में उतर जाती हैं। अच्छी बात ये है कि फिल्म और टेलिविजन इंडस्ट्री में अच्छे लेखकों की हमेशा तलाश रहती है, खासकर एक ऐसे दौर में जब टीवी धारावाहिकों के 300 से 500 एपिसोड बनना आम बात हो गई है, कहानियां, संवाद और पटकथा लेखन रोजगार का एक विशाल क्षेत्र बनकर उभरा है।
फिल्म, टीवी और थिएटर की दुनिया। अक्सर लोग इसकी चकाचैंध को देखते हैं। अक्सर परदे पर, या रंगमंच पर प्रदर्शन करते हुए कलाकार ही हमारी नजर में आते हैं। लेकिन इन सबको रचने वाला एक पूरा संसार परदे के पीछे खड़ा है। इस संसार में शामिल हैं, वो लोग जो चुपचाप अपने कार्य को अंजाम देते हुए आपके सामने ग्लैमर जगत की चकाचैंध भरी रंगीन तस्वीर पेश करते हैं। यही वो लोग हैं, जो स्टारडम से कोसों दूर फिल्म मेकिंग और टीवी प्रोडक्शन में अलग अलग व्यवसायों को अपनाते हुए अपनी आजीविका चला रहे हैं। अपने अपने क्षेत्रों में इनकी अहमियत उतनी ही है, जितनी एक स्टार की, फिर चाहे वो हेयर ड्रेसर, मेकअप आर्टिस्ट, लाइटमैन, डबिंग आर्टिस्ट, एनिमेटर या स्पॉटबॉय हो।
अनेकों के पास केवल कहानी का आइडिया होता है, तो अनेकों के पास मुकम्मल कहानी। लेकिन उनके पास पटकथा नहीं है। एकबार फिर स्पष्ट कर दूं कि कथाकार और पटकथाकार को लेकर कोई भ्रम न पालें। पटकथा-लेखन, लेखन एक चरणबद्ध प्रक्रिया है। इसके कुछ मौलिक सिद्धांत हैं, जिसे जानना जरूरी है। कहानी या कथा कैसी भी हो सकती है। एक पटकथाकार केवल उस कहानी या कथा को एक निश्चित उद्देश्य यानी फिल्मों के निर्माण के लिए लिखता है, जो पटकथा (Screenplay) कहलाती है। और दूसरी ओर, एक कथाकार स्वयं पटकथाकार भी हो सकता है यानी कहानी भी उसकी और पटकथा भी उसी की। उम्मीद है अब आपको कथाकार और पटकथाकार का कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए। सवाल है कि पटकथा लेखन के सिद्धांत क्या हैं? यह कैसे लिखें? क्या लिखें और क्या न लिखें? एक फिल्मी कथानक का बीजारोपण कैसे होता है, इसका प्रारूप कैसा होता है? इसे स्टेप-बाइ-स्टेप समझना होता हैं।
स्क्रिप्ट राइटिंग कहानियां और कविताएं लिखने से कुछ अलग होता है। स्क्रिप्ट में लिखी गई हर बात का फिल्मांकन किया जाता है। इसमें लेखक को यह सोचकर लिखना पड़ता है कि उसके द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट पढ़ी नहीं, देखी जाएगी। उसकी मेहनत का परिणाम उसे फिल्मांकन के बाद मिलता है। इस क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए आपमें रचनात्मकता का होना आवश्यक है। जो युवा लिखने-पढ़ने के साथ मानवीय संवेदनाओं को पकड़ कर अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते हैं उनके लिए भी इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। हालांकि स्क्रिप्ट राइटिंग पूरी तरह आपकी विश्लेषण और कल्पना क्षमता पर आधारित है, लेकिन फिर भी इसके लिए जर्नलिज्म कोर्स कर लिया जाए तो बेहतर होगा।
पटकथा लेखन एक कला है। अनेक विद्वान लेखन की इस विधा को व्यवसायिक लेखन का एक रूप मानते हैं। जो बहुत हद तक सही है। पटकथा ”स्वांतः सुखाय“ नहीं लिखी जाती है। यह एक उद्देश्य से लिखी जाती है अर्थात् यह फिल्मों, टीवी सीरियलों आदि के निर्माण के लिए होती। यह ध्यान देने योग्य है कि लेखन की विधाओं में पटकथा लेखन एक आधुनिक और नई विधा है। वास्तव में, पटकथा लेखन स्वाध्याय के साथ-साथ एक व्यवसायिक लेखन है। जाहिर है कि लेखन की इस विधा के लिए स्वाध्याय के साथ-साथ लेखन के व्यवसायिक गुणों का होना जरूरी है।
तलाश एक अदद कहानी की पटकथा लेखन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है, एक अदद कहानी की। यकीन जानिए, कहानी कुछ भी हो सकती। सो कहानी के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है। मसलन, पूरी-की-पूरी रामायण, महाभारत या उनके एक-दो प्रसंग किसी फिल्म या धारावाहिक की कहानी हो सकती है। या इन ग्रंथों की कहानियों और पात्रों से प्रेरणा लेकर एक अच्छी कहानी गढ़ी जा सकती है। 
कथानक को समस्या, संघर्ष और समाधान में बांटने की एक सर्वमान्य लेखन-परंपरा की चर्चा की। इन तीन बिंदुओं के रूप में कथानक को प्रस्तुत करने का चलन सर्वथा नया नहीं है। स्कूली शिक्षा में हमें सिखलाया जाता है कि अपने प्रत्येक आलेख को तीन भागों यानी शुरुआत (Opening), मध्य भाग (Body) और अंत (Ending) में बांटे। आलेख-लेखन का यह सूत्र OBE (Opening-Body-Ending) या OBC (Opening-Body-Conclusion) के रूप में जाना जाता है।
ओपनिंग वाले हिस्से में जहां प्रस्तावना या विषय-वस्तु का परिचय होता है, बॉडी वाले भाग में विषय-वस्तु का वर्णन होता है, तो वहीं एंडिंग वाले पार्ट में विषय-वस्तु का निष्कर्ष या ;आद्धलेख का उपसंहार होता है। कमोबेश पटकथा-लेखन भी इसी अवधारणा पर नियोजित होती है। शायद सदियों से और आज भी स्कूल में ;आद्धलेख लिखने का यह प्रारूप जरूर सिखलाया जाता है। रोचक यह है कि इस रीति का पालन नहीं करने पर परीक्षक नंबर काट लेते हैं। अगर किसी आलेख के लिए 10 नंबर निश्चित है और किसी छात्र ने OBE के ढर्रे का पालन नहीं किया है, तो उसके 2-3 नंबर तो शर्तिया गए। सवाल है फिल्मी दुनिया में OBE के इस बहस से क्या मतलब है? मतलब है सरकार, बड़ा गहरा मतलब है। क्या यहां भी नंबर कटता है। जी, बिलकुल कटता है और 2-3 नंबर नहीं, पूरे-का-पूरा नंबर कट जाता है, मतलब ”बच्चा पर्चा-फेल“!
फिल्म-जगत में “टू मिनट मूवी” एक व्यवहारिक शब्दावली के साथ-साथ व्यवहारिक कार्यप्रणाली है। क्योंकि, फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के पास ज्यादा समय नहीं होता है कि घंटा, दो घंटा निकालें और किसी कहानी को आराम से सुनें या पढ़ें। कोई कथाकार या पटकथाकार जब किसी कहानी के सिलसिले में प्रोड्यूसर, निर्देशक या किसी फिल्म-मेकर या इन्वेस्टर से मिलता है, तो वे एक ही जुमला दोहराते हैं-”दो मिनट में बताइए, कहानी क्या है?“ यह प्रथा और जुमला कब से प्रचलित है, यह तो नहीं पता, लेकिन आज यह काफी चलन में है। इसलिए परंपरागत रुप से कहानी को थ्री प्वायंट्स ऑफ स्क्रीनप्ले यानी प्रिमाईस के रूप में में ढालना और कहने-सुनने की आदत डालना जरूरी है। और, सच बात तो यह है कि अगर कोई लेखक, पटकथा-लेखक या कथाकार किसी कहानी को दो मिनट में नहीं सुना सकता है, तो वह दो घंटे में भी नहीं सुना सकता है। ऐसे लोगों की जरुरत फिल्म इंडस्ट्री को भी नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि जो लोग फिल्में बनाते हैं, उनका पैसा, उनकी मेहनत, उनकी प्रतिष्ठा सब कुछ दांव पर लगी होती है। फिल्म हिट होती है, तो वे अर्श पर होते है, फिल्म पीटती या फ्लॉप होती है, तो वे फर्श पे नहीं बल्कि सड़क पर होते हैं। उनका समय बेशकीमती होता है। इसलिए जब भी अपनी कहानी लेकर उनसे मिलने जाएं, “टू मिनट मूवी” का होमवर्क जरुर कर लें। फिल्मी दुनिया में टू मिनट मूवी की स्थिति को कहावतों की बोली में कहें, तो यह मॉर्निंग शोज द डे (Morning shows the day) या पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगते हैं, की तरह है। इसलिए प्रिमाईस लेखन में कोताही एक पटकथा-लेखक के लिए आत्मघाती होता है। मतलब? जैसा कि ऊपर कहा है, आपकी पटकथा के परीक्षक ने आपका पूरे के पूरा नंबर काट लिया। मतलब यह कि कहानी का आइडिया, कथा-कहानी-पटकथा सब खारिज। वर्तमान में कोई प्रोड्यूसर, निर्देशक या कोई फिल्म-मेकर या इन्वेस्टर बड़ी मुश्किल से समय देता है या मिलता है। केवल तीन पंक्ति में प्रस्तुत एक प्रिमाईस के लिए वह अवसर हाथ से निकल जाए, तो आप और हम काहे को कथा-पटकथा लेखन सीखेंगे और काहे लिखेंगे!
एक कथा और पटकथा-लेखक के रूप में जब कोई कहानीकार एक कहानी का प्लॉट तैयार करता है, तो उसके जेहन में कुछ काल्पनिक दृश्य आते-जाते रहते हैं। फिर कहानी लिखनेवाला बड़े जतन से उन दृश्यों को एक के बाद एक क्रम में सहेजता है और लिख डालता है। इसी प्रकार, जब एक पटकथा-लेखक जब पटकथा लिखना शुरु करता है, तो ठीक ऐसी ही घटना उसके साथ भी होती है। उसके मस्तिष्क में पूरी कहानी दृश्य-दर-दृश्य, एक क्रम से, एक चलचित्र की तरह चलती जाती है। जिसे वह शब्दों का जामा पहनाकर एक पटकथा की शक्ल देता है। यहां यह जान लीजिए कि पटकथा-लेखक वह सौभाग्यशाली व्यक्ति या दर्शक है, जो एक फिल्म को सबसे पहले अपने दिमाग में देखता है और समझता है। पटकथा के एक अंग के रूप में वनलाईनर की अवधारणा नितांत अपने बम्बईया, अब मुम्बईया, पटकथाकारों के रचनात्मक दिमाग की उपज है। इसके महत्व और उपादेयता को समझते हुए पटकथा-लेखन का यह महत्वपूर्ण अंग अब हॉलीवुड फिल्मकारों को भी पसंद आने लगा है। तो, आईए जानते हैं कि वनलाईनर क्या है?
वनलाईनर किसी पटकथा की लगभग संवाद-विहीन संक्षिप्त दृश्यमय कहानी है। कहने का तात्पर्य यह कि जिस रुप में फिल्म को दिखानी होती है, यह ;वनलाईनरद्ध उसकी दृश्य-दर-दृश्य शाब्दिक प्रस्तुति है। अब सवाल यह है कि पटकथा लिखने से पहले वनलाईनर लिखना जरूरी है? जवाब है-जी हां, बहुत जरूरी है। क्योंकि, सबसे अहम बात यह कि इससे पूरी फिल्म की झलक मिल जाती है कि फिल्म कैसी दिखेगी या बनेगी। दूसरी अहम बात यह कि फिल्मी दुनिया में यह एक व्यवहारिक कार्यप्रणाली है। जैसा कि पिछले आलेखों में कह चुका हूं कि इस दुनिया से जुड़े लोगों के पास समयाभाव होता है। अक्सर प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स या खुद पटकथा-लेखक पूरी पटकथा के विस्तार और उसकी गहराई में नहीं जाना चाहते हैं। तब 100 या 120 पेज की पटकथा को अधिकतम चार-पांच पेज के रुप में लिख लिया जाता है, जो कि पटकथा का दृश्यवार विवरण यानी वनलाईनर होता है। तीसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि जिस तरह से एक अच्छा प्रिमाईस अच्छे कथानक और बेहतर पटकथा को जन्म देता है, कथा-पटकथा में पर्याप्त नाटकीयता भी लाता है। ठीक यही काम वनलाईनर का भी है, बल्कि इससे कई कदम आगे यह कथानक की दिशा, घटनाओं-परिघटनाओं की तारतम्यता और उसकी नाटकीयता को सटीक और प्रभावशाली ढंग से पेश करता है। चैथा कारण यह है कि कोई कथा या कहानी, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, विस्तार से पटकथा का आभास नहीं देती है। इसी प्रकार किसी कथा या कहानी पर आधारित पटकथा हू-ब-हू ;शत-प्रतिशतद्ध कथा या कहानी की प्रस्तुति नहीं होती है। यहां उस व्यवहारिक चैलेंज को समझिए, जो एक प्रोड्यूसर या डायरेक्टर के सामने आता है। कथा या कहानी से उसे पूरी फिल्म की झलक नहीं मिलती है और समयाभाव में पूरी पटकथा को वह पढ़ना नहीं चाहता है। लिहाजा वह बीच का रास्ता “कथा-मिश्रित-पटकथा“ यानी वनलाईनर चाहता है। इसलिए वनलाईनर में कथा या कहानी और पटकथा दोनों के तत्वों का समावेश होता है अर्थात् बिना सम्वाद कहानी और दृश्य को एक साथ लिखा जाता है।
फिल्म के लिए पहले कहानी लिखी जाती है, फिर पटकथा और आखिर में संवाद ;डायलॉगद्ध। डायलॉग राइटर कहानी और पटकथा में संवाद जोड़कर उसके सिलसिले को आगे बढ़ाता है। लेकिन डायलॉग राइटर ;संवाद लेखकद्ध बनने के लिए आपमें कई खूबियां होनी चाहिए। आपमें किसी बात को बहुत कम शब्दों में कहने की कला आनी चाहिए, वो भी रोचक अंदाज में, जैसे-“मेरे पास मां है”
ये मशहूर डायलॉग था तो बहुत छोटा, लेकिन चार शब्दों में एक बेटे ने अपनी मां के लिए सारी ममता उड़ेल दी थी। अच्छे डायलॉग राइटर वहां कुछ भी लिखने से बचते हैं, जहां कलाकार अपने एक्स्प्रेशन ;हाव भावद्ध से ही बहुत कुछ कह जाएं। आपको आज के चलन और लोगों की बदलती मानसिकता को भी समझना होगा। मुगल-ए-आजम जैसी फिल्मों के दौर में उर्दू भाषा में बड़े-बड़े डायलॉग्स का चलन था, लेकिन आज छोटे, सरल और चुटीले डायलॉग्स का जमाना है, इसीलिए हिंदी के साथ आप अच्छी अंग्रेजी भी जानते हैं, तो सोने पे सुहागा। अच्छी अंग्रेजी जानने पर आप अंग्रेजी डायलॉग राइटर के डायलॉग्स भी ट्रांसलेट कर सकते हैं। अगर आपकी उर्दू अच्छी है, तो ये पीरियड फिल्म के डायलॉग लिखने में काम आ सकती है। डायलॉग राइटर के रुप में आपको फिल्म के माहौल को समझ कर शब्द चुनने होंगे किरदारों की सामाजिक, आर्थिक और मानसिक परिस्थितियां समझनी होंगी। किरदार पढ़ा लिखा है, या अशिक्षित, एन.आर.आई. है या ठेठ उत्तरप्रदेश का, इसी हिसाब से उसकी हिंदी का टोन बदलना होगा। डायलॉग राइटर बनने के लिए आपको किसी फिल्म डायरेक्टर या स्क्रिप्ट राइटर से संपर्क करना होगा। आप उसके असिस्टेंट के रुप में काम करते हुए भी आगे बढ़ सकते हैं। जहां तक वेतन का सवाल है, टीवी जगत में हर एपिसोड या शो के हिसाब से पैसा मिलता है, जबकि फिल्मी दुनिया में हर फिल्म के हिसाब से।
फिल्म बनाने में निम्न क्रम से गुजरना पड़ता है-
01. स्क्रिप्ट
02. स्टोरीबोर्ड या चित्र
03. कपड़े
04. मेकअप
05. सेट पर शूटिंग
06. स्पेशल इफेक्ट्स् फिल्माना
07. संगीत रिकॉर्ड करना
08. आवाज मिलाना
09. कंप्यूटर से तैयार की गयी तसवीरें
10. एडिट करना
धर्म शास्त्र उन लोगों का जिक्र करती है “जिन के ज्ञानेन्द्रिय ;“परख-शक्ति”द्ध, अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।” इसलिए माता-पिता का लक्ष्य होना चाहिए, अपने बच्चों के दिल में ऐसे उसूल बिठाना जिनकी मदद से, वे बड़े होकर जब मनोरंजन के बारे में खुद फैसला करने के लिए आजाद हों, तब सही फैसले कर सकें। ऐसे बहुत-से जवान हैं जिन्हें बचपन से अपने माँ-बाप से बढ़िया तालीम मिली है। बहुत-से माता-पिताओं ने अपने बच्चों को परख-शक्ति का इस्तेमाल करना सिखाया है ताकि मनोरंजन के मामले में भी वे सही चुनाव कर सकें। यह सच है कि फिल्म इंडस्ट्री जो फिल्में बनाती है, उनमें से ज्यादातर अच्छी नहीं होतीं। दूसरी तरफ, जब धर्म शास्त्र के सिद्धांतों के मुताबिक चलते हैं, तो वे अच्छे मनोरंजन का मजा ले पाते हैं जिनसे न सिर्फ उन्हें ताजगी मिलती है बल्कि वे अच्छा भी महसूस करते हैं। बहुत-से देशों ने रेटिंग का तरीका अपनाया है। फिल्म में दिए रेटिंग के निशान से साफ पता चलता है कि किस उम्र के लोग यह फिल्म देख सकते हैं। इसके अलावा, हर देश की अपनी एक कसौटी होती है जिसके मुताबिक फिल्म की रेटिंग की जाती है। इसलिए एक देश में जो फिल्म जवानों के लिए मना है, वही शायद दूसरे देश में जवानों को देखने की छूट हो। बच्चों और जवानों के लिए बनायी गयी कुछ फिल्मों में जादू-टोना, भूतविद्या या दुष्टात्माओं के दूसरे काम दिखाए जा सकते हैं।
विजुअल-आडियो मीडिया (दृश्य-श्रव्य माध्यम) का आविष्कार मनुष्य जीवन के लिए सर्वप्रथम आश्चर्य का विषय था जो आगे चलकर मनोरंजन का मुख्य माध्यम बना और अब साहित्य की भँाति आॅडियो-विजुअल मीडिया भी समाज का दर्पण ही है। इस आडियो विजुअल मीडिया में फिल्म, दूरदर्शन तथा वर्तमान में इन्टरनेट भी शामिल हो गया है। परिणामस्वरूप फिल्म से समाज का निर्माण और समाज से फिल्म का निर्माण का रूप उभर कर सामने आया है। यह बात कि फिल्म समाज को क्या दिखाना चाहता है? तथा समाज फिल्म से क्या देखना चाहता है? यह बात फिल्म और समाज दोनांे ओर से सदा उठती रही है। निश्चय ही इसमंे मन का व्यापक न होना ही विवाद का मुख्य कारण रहा है। ऐसा न होने से ही अपनी अपनी दृष्टि से देखते हुये ही विचार व्यक्त किये जाते है।

फिल्म जगत से व्यक्त वही कहानी, गीत, संगीत, निर्देशन, अभिनय समाज द्वारा जाने पहचाने और याद रखे जाते है। जो आत्मा को स्पर्श करती है। चंूकि यह आत्मा सर्वव्यापी है इसलिए इसका अधिकतम स्पर्श अधिकतम भीड़ को प्रभावित करती है। जिस प्रकार यह जितना सत्य है उसी प्रकार यह भी सत्य है कि जो व्यक्ति स्वयं आत्मा स्वरूप हो तो वह निश्चय ही आत्मीय कहानी, गीत, संगीत, निर्देशन अभिनय का सर्वोच्च पारखी व चुनने वाला भी होगा। सर्वोच्चता वहीं है जो सब में व्याप्त हो जाये, कहानियाँ वही हैं, जो सबसे लम्बी यात्रा पूर्ण किया हो तथा पाया उसी ने है जो पहले पहचाना है।

श्री लव कुश सिंह विश्वमानव द्वारा लिखे/विचार प्रस्तुत किये गये-फिल्म/टी.वी सिरियल के स्क्रिप्ट
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क्र.सं. टाइटल                                फिल्म/सिरियल                    भाषा                       स्थिति
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1. विश्वगुरू-द ब्रेन टर्मिनेटर बालीवुड फिल्म          हिन्दी, अंग्रेजी व बंग्ला               पूर्ण
    (रिप्रेजेन्टेटिव सिनेमा आॅफ इण्डिया)
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2. द डर्टी साधु-
    अण्डरस्टैण्डिंग ट्रांसडेन्ट बालीवुड फिल्म           हिन्दी, अंग्रेजी                        पूर्ण
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3. माॅय टेन वाइफ आॅन अर्थ बालीवुड फिल्म           हिन्दी                                  पूर्ण
     - अण्डरस्टैण्डिंग फिमेल
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4. अगरबत्ती पे करोड़पत्ती                बालीवुड फिल्म            हिन्दी                                  पूर्ण
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5. डेमोक्रेसी-द रियल ऐम                 बालीवुड फिल्म            हिन्दी, अंग्रेजी                        पूर्ण
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6. 9डी-नाइन डाइमेन्सन                 हॅालीवुड फिल्म             हिन्दी, अंग्रेजी                        पूर्ण
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7. किरनिया-
    एक नारी की कहानी भोजपुरी फिल्म             भोजपुरी                              पूर्ण
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8. जय माँ कल्कि                           बालीवुड फिल्म             हिन्दी                                  पूर्ण
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9. विश्वभारत                                 टी.वी.सिरियल              हिन्दी                                विचार
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Saturday, March 14, 2020

Agreement Over Writing A Screenplay For A Film


Agreement Over Writing A Screenplay For A Film
By this memorandum of understanding, signed this DATE; both the parties described herein under as, represented by CLIENT’S NAME of CLIENT’S ADDRESS, phone number CLIENT’S PHONE NUMBER, also described as the ‘client’; and SCREENPLAY WRITER’S NAME, SCREENWRITER’S ADDRESS, phone number SCREENWRITER’S PHONE NUMBER, also described as ‘screenplay writer, do hereby agree to all the terms described and given below:
1. CLIENT’S NAME is commissioning screenwriter SCREENPLAY WRITER’S NAME to begin the project of writing the screenplay of a (approx) NO. OF MINUTES minutes long feature film.
2. The tentative working title of the film shall be ‘NAME OF MOVIE. This title is subject to change.
3. The deadline for completion of this screenplay is NUMBER OF DAYS days after the signing of this agreement.
4. CLIENT’S NAME  agrees to pay SCREENPLAY WRITER’S NAME a consolidated sum of TOTAL FEE AMOUNT  for the project that will include the following:
a. Writing the screenplay on the story/treatment laid down by CLIENT’S NAME .
b. Editing it thoroughly before submission., so that the final version is free from errors like spelling and grammar errors, and typos.
5. The fees of the screenplay writer will be paid as follows:
a. 1/3 as advance to get the project started.
b. 1/3 after 40% work submission.
c. The remaining 1/3 fees will be paid on 80% work submission and approval.
6. SCREENPLAY WRITER’S NAME is subject to NO royalty or commission on the sale or business from the screenplay. He is only entitled to the one time project fees of TOTAL FEE AMOUNT.
7. SCREENPLAY WRITER’S NAME (screenplay writer) will maintain full confidentiality and secrecy about this project. At no point during the project will he reveal any idea or concept of the film, to anyone, in any form; even if this contract gets terminated at any point during the project.
8. If SCREENPLAY WRITER’S NAME is unable to complete the project for some reason, he will convey that in writing as email as soon as possible. In that case he will be entitled to a payment which is proportionate to the amount of work he has completed; subject to approval from the client.
9. The screenplay will be 100 – 120 pages in length.
10. The screenplay writer will get credit for his/her contribution to the film.
11. SCREENPLAY WRITER’S NAME agrees that he will not take the help of any plagiarism, meaning he will avoid using borrowed material in this screenplay exactly as they are found elsewhere.
12. SCREENPLAY WRITER’S NAME agrees to do necessary coordination with the director or any other person or persons referred by the client, for proper shaping up of the project if necessary.
13. CLIENT’S NAME will own all copyrights for this screenplay.
14. CLIENT’S NAME will have full freedom to deal with any filmmaker, producer or agent. SCREENPLAY WRITER’S NAME will have no say on these matters.
15. CLIENT’S NAME can request SCREENPLAY WRITER’S NAME to make a reasonable number of changes and edits during the period of production of this screenplay and within 1 month of completion and submission of the screenplay.
16. Any disputes arising between the parties related to this contract and project will be settled by courts in NAME OF YOUR CITY.
Both the parties do hereby agree to the terms laid and set above.
Signature
CLIENT’S NAME  (client)
Signature
SCREENPLAY WRITER’S NAME (screenplay writer)
Date:  _______________





Writing on spec or assignment


Writing on spec or assignment
Screenplays can be written either on "spec" (speculative) or as assignment ("Commissioned"). The Variety slanguage dictionary defines "spec script" as "a script shopped or sold on the open market, as opposed to one commissioned by a studio or production company."
Writing on assignment
Assignments are commissioned by production companies or studios on the basis of pitches from producers or writers, or literary properties they already own. Most established writers do most of their work on assignment and will only "spec" scripts which they think no-one will pay them to write, or if they cannot find assignment work.

There are exceptions: some very famous writers only write on spec because they know that they can get a better price for their work this way. Other writers spec scripts that they care deeply about so that they do not have to bend to the whims of executives and producers.

An assignment may be for an original screenplay, or for an adapted screenplay based on another work such as a novel, film, short story, comic book, magazine article or, increasingly, video game. It may also, however, be for a rewrite of an existing script, and in fact this is how a large proportion of writers in the modern studio system make their living. Rewriting scripts is an art in itself and an extremely lucrative one at that: it is not unknown for trusted writers in the higher echelons of the industry to receive $200,000 a week (2004 numbers) for their efforts. $50,000 per week is not uncommon.

Rewriting is difficult because executives often have very clear ideas about what is wrong with a script, however, they are usually unable to provide detailed prescriptions for ways it can be fixed. This is not surprising, because screenwriting is not the expertise of the executive, but of the screenwriter. The writer is therefore usually expected to come up with a detailed prescription for how the script can be improved, and then execute this in a timely fashion. During the process of choosing a writer to rewrite a script the executives may ask several writers for their 'take' and choose the one who appears to have the greatest likelihood of moving the script forward to the point where it may be greenlit for production.

Before 'going to script' a writer may be asked to write a treatment, an outline, or a step outline describing the script in various granularities of detail. Some writers resist this process and will do anything to avoid it and get down the writing the script itself; others embrace the process and even deliver fairly elaborate treatments, the so-called scriptments. It is fair to say that producers tend to be wary of the former and pleasantly surprised by the latter.
Spec scripts
Many Spec scripts (short for speculative) are written independently by screenwriters in hopes of optioning and eventually outright selling them to producers or studios. Other spec scripts are written by writer-directors who plan to direct the film themselves. Many so-called "arthouse" films fall into this latter category, whereas the former category tends to be filled with "high concept" scripts - mostly action or comedy, to which a star or A-list director can be attached. However, most of the hundreds of thousands of spec scripts penned each year are written by unknowns who are trying to attract attention and find it difficult to generate the kind of “buzz” that more established scribes count on to sell their scripts. (See the screenwriting documentary Dreams on Spec.)
Script costs
Script costs can include adaptation rights, but often story rights are listed separately in the development section of a budget.

The cost of screenplays varies enormously, and there are often many different writers involved, some of which are uncredited. For example, Quentin Tarantino did uncredited rewrites for Silver Surfer and It's Pat (see Jami Berhard's Quentin Tarantino: The Man and His Movies).

Jurassic Park was adapted by the book's author, Michael Crichton, for a large undisclosed sum. His salary for Twister was 2.5 million, but there were many writers involved, not just him.

Out of a $72 million budget for the film Signs, writer-director M. Night Shyamalan was paid $5 million, most of which were however license fees for the story rights. For the film The Village (total budget: $71 million) Shyamalan received $327,500 for all writing costs including the screenplay fees for his production company Blinding Edge Pictures and costs for materials, supplies, script duplication as well as fringes. An additional $7.2 million were paid to Shyamalan for the story rights, almost three times the amount Shyamalan earned for his work as producer and director on the film.

Although the highest paid names are stars and directors and sometimes novelists who get their novel adapted, a good screenwriter can command - and is worth - a large salary.

Total script costs can easily be ten percent of the film's budget but, like other areas of a film, unless the writer is a star, it is unlikely for a big budget film to spend more than 5% in the script department.

For a movie with a script budget of $500,000 that is not an adaptation, written on assignment, the payments might break down as follows (referred to as "300,000 against 500,000"):
           First draft: $150,000
           First draft revisions: $50,000
           Second draft: $75,000
           Second draft revisions: $25,000
           Production bonus: $200,000
The first four payments are paid half on commencement of the writing step and half on completion. The final payment, the production bonus, is paid only if the script goes into production and becomes due on the first day of principal photography. If a script is approved for production before all the steps have been completed, the production bonus could be bigger. This means there may be an incentive for the writer not to drag out the process.

The development process
Once a studio has purchased or commissioned a script, it goes through the process of revisions and rewriting until all stakeholders are satisfied and ready to proceed. It is not uncommon for a script to go through many, many drafts on its journey to production. Very few scripts improve steadily with each draft, and when a certain avenue has been exhausted the writer will often be replaced and another brought in to do a rewrite.

Occasionally it becomes impossible to satisfy all such parties, and the project enters development hell. If a studio decides it does not wish to proceed to production with the script, the project enters 'turnaround'. Another studio may purchase the script from its original owner, but the script is encumbered with the development costs the studio has already incurred. At a certain point, it may simply be uneconomic for anyone to purchase the script, even if it is a very good one. This goes part of the way to explaining why some of the best scripts in Hollywood remain unproduced.

The shooting script
Once a script has been approved for production, camera directions and notes may be inserted by the Director, and each scene is assigned a number to provide a convenient way for the various production departments to reference individual scenes. When a scene is omitted, its number is retained labeled with "OMITTED", so that it won't be assigned to any newly added scenes.

When the shooting script is distributed, its pages are locked, meaning that any subsequent revisions will apply to the first set of revision pages. When revisions are distributed, the pages are swapped into the outstanding drafts, and the script is once again locked. The process is repeated for each new round of revisions.

Each round of revisions is distributed on different colored paper. The progression of colors varies from one production to the next. Since rewrites often continue throughout principal photography, most shooting scripts evolve into a rainbow of gold, pink, blue, green and cherry pages.

Transcripts
A screenplay is different from a transcript. A transcript is simply a copy of what dialogue finally appeared onscreen, without regard to the original script, the stage directions or action. A full post-production transcript may also include descriptions of the action on-screen, but since it is generally not written by a professional writer but either a production assistant or a fan, it may not be particularly entertaining to read.

Many published screenplays available at booksellers or downloaded from the internet are in fact glorified post-production transcripts rather than shooting scripts. Transcripts and screenplays often differ radically because scenes are frequently re-ordered or dropped entirely during the editing process. Moreover, actors may change lines or simply improvise dialog, and many directors will make their own changes to the script on the fly during rehearsal or shooting.

It can be extremely revealing to compare a shooting script with the film as finally distributed.