Monday, April 13, 2020

फिल्म एवं टी0 वी. सिरियल

फिल्म एवं टी0 वी. सिरियल

फिल्में भारतीय समाज से एक अलग तरह का जुड़ाव रखती हैं और फिल्मों के समाज से इस जुड़ाव के पीछे महतवपूर्ण भूमिका निबाहती है उनकी कथा और पटकथा. काल् क्रम से हम अगर फिल्मों के इतिहास पर नजर डालें तो स्पष्ट पता चलता है कि जिन फिल्मों की पटकथा कसी हुई और मौलिक होती है, दर्शकों से उसे भरपूर प्यार मिलता है। इस लिहाज से पटकथा लेखन फिल्म निर्माण का सबसे मूलभूत और आवश्यक पहलु है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है. यह भी सर्वविदित है कि हिंदी फिल्म उद्योग के पास योग्य लेखों की हमेशा से कमी रही है इसलिए जिस पैमाने पर यहाँ फिल्म निर्माण होता है उस लिहाज से हमारा सिनेमा समृद्ध नहीं है. आज भी भारतीय परिप्रेक्ष्य की समझ और नवीन विचारों के साथ पटकथा लिखने वालों में कुछ गिने चुने नाम हैं इसलिए पटकथा लेखन को एक व्यवसाय के रूप में लेने की कोशिश युवाओं को जरुर करनी चाहिए साहित्यिक लेखन और फिल्म लेखन दो अलग अलग विद्याएँ हैं साहित्य जगत के बड़े नाम फिल्म पटकथा लेखन में कभी जम नहीं पाए तो सिर्फ उसका यही कारण था कि वे भावों के प्रवाह को फिल्म माध्यम के अनुरूप ढाल नहीं पाए. टीवी सीरियल हो या फिल्म और थियेटर...इनकी नींव में होती है, राइटिंग यानी लेखन। फिल्म और टेलिविजन जगत में जो फिल्मांकन (शूटिंग) किया जाता है, या थियेटर में जो भी मंच पर पेश आता है, उसे पहले कागज पर इस तरह लिखा जाता है, ताकि निर्देशक के सामने एक-एक सीन जीवित हो जाए। फिल्म, या टीवी प्रोग्राम के लिए ये कार्य निम्नलिखित तीन चरणों में किया जाता है। 
1. पहले कहानी लिखी जाती है, फिर 
2. स्क्रीनप्ले या पटकथा तैयार की जाती है, और अंत में 
3. डायलॉग या संवाद लखे जाते हैं। 
कहानी, पटकथा और संवाद जितने मजबूत होंगे, शूटिंग और उसके बाद होने वाला पोस्ट प्रोडक्शन वर्क उतना ही आसान रहेगा।
जहां लेखक और साहित्यकारों का वास्ता कागज और कलम तक सीमित होता है, वहीं टीवी प्रोग्राम और फिल्म लिखने वालों को अपनी कला को परफॉर्मिंग आर्ट में तब्दील करना होता है। उन्हें वो लिखना होता है, जिसे परदे पर सही ढंग से उतारा जा सके, इसीलिए फिल्म या टीवी लेखक के लिए इन दोनों माध्यमों की जानकारी होना जरूरी है। लिखते वक्त उन्हें परदे पर उतारे जा सकने वाले दृश्यों की सीमाओं को समझना होता है, फिल्म के बजट को ध्यान में रखना होता है। किसी फिल्म में स्क्रिप्ट का महत्व ये है, कि कई बार घटिया स्क्रिप्ट होने की वजह से बड़े से बड़े बजट और नामी सितारों से लदी हुई फिल्म फ्लॉप हो जाती है। दूसरी तरफ एक मजबूत स्क्रिप्ट को कसे हुए डायरेक्शन के साथ परदे पर उतारा जाए, तो छोटे कलाकारों और मामूली बजट वाली फिल्में भी दर्शकों के दिल में उतर जाती हैं। अच्छी बात ये है कि फिल्म और टेलिविजन इंडस्ट्री में अच्छे लेखकों की हमेशा तलाश रहती है, खासकर एक ऐसे दौर में जब टीवी धारावाहिकों के 300 से 500 एपिसोड बनना आम बात हो गई है, कहानियां, संवाद और पटकथा लेखन रोजगार का एक विशाल क्षेत्र बनकर उभरा है।
फिल्म, टीवी और थिएटर की दुनिया। अक्सर लोग इसकी चकाचैंध को देखते हैं। अक्सर परदे पर, या रंगमंच पर प्रदर्शन करते हुए कलाकार ही हमारी नजर में आते हैं। लेकिन इन सबको रचने वाला एक पूरा संसार परदे के पीछे खड़ा है। इस संसार में शामिल हैं, वो लोग जो चुपचाप अपने कार्य को अंजाम देते हुए आपके सामने ग्लैमर जगत की चकाचैंध भरी रंगीन तस्वीर पेश करते हैं। यही वो लोग हैं, जो स्टारडम से कोसों दूर फिल्म मेकिंग और टीवी प्रोडक्शन में अलग अलग व्यवसायों को अपनाते हुए अपनी आजीविका चला रहे हैं। अपने अपने क्षेत्रों में इनकी अहमियत उतनी ही है, जितनी एक स्टार की, फिर चाहे वो हेयर ड्रेसर, मेकअप आर्टिस्ट, लाइटमैन, डबिंग आर्टिस्ट, एनिमेटर या स्पॉटबॉय हो।
अनेकों के पास केवल कहानी का आइडिया होता है, तो अनेकों के पास मुकम्मल कहानी। लेकिन उनके पास पटकथा नहीं है। एकबार फिर स्पष्ट कर दूं कि कथाकार और पटकथाकार को लेकर कोई भ्रम न पालें। पटकथा-लेखन, लेखन एक चरणबद्ध प्रक्रिया है। इसके कुछ मौलिक सिद्धांत हैं, जिसे जानना जरूरी है। कहानी या कथा कैसी भी हो सकती है। एक पटकथाकार केवल उस कहानी या कथा को एक निश्चित उद्देश्य यानी फिल्मों के निर्माण के लिए लिखता है, जो पटकथा (Screenplay) कहलाती है। और दूसरी ओर, एक कथाकार स्वयं पटकथाकार भी हो सकता है यानी कहानी भी उसकी और पटकथा भी उसी की। उम्मीद है अब आपको कथाकार और पटकथाकार का कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए। सवाल है कि पटकथा लेखन के सिद्धांत क्या हैं? यह कैसे लिखें? क्या लिखें और क्या न लिखें? एक फिल्मी कथानक का बीजारोपण कैसे होता है, इसका प्रारूप कैसा होता है? इसे स्टेप-बाइ-स्टेप समझना होता हैं।
स्क्रिप्ट राइटिंग कहानियां और कविताएं लिखने से कुछ अलग होता है। स्क्रिप्ट में लिखी गई हर बात का फिल्मांकन किया जाता है। इसमें लेखक को यह सोचकर लिखना पड़ता है कि उसके द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट पढ़ी नहीं, देखी जाएगी। उसकी मेहनत का परिणाम उसे फिल्मांकन के बाद मिलता है। इस क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए आपमें रचनात्मकता का होना आवश्यक है। जो युवा लिखने-पढ़ने के साथ मानवीय संवेदनाओं को पकड़ कर अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते हैं उनके लिए भी इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। हालांकि स्क्रिप्ट राइटिंग पूरी तरह आपकी विश्लेषण और कल्पना क्षमता पर आधारित है, लेकिन फिर भी इसके लिए जर्नलिज्म कोर्स कर लिया जाए तो बेहतर होगा।
पटकथा लेखन एक कला है। अनेक विद्वान लेखन की इस विधा को व्यवसायिक लेखन का एक रूप मानते हैं। जो बहुत हद तक सही है। पटकथा ”स्वांतः सुखाय“ नहीं लिखी जाती है। यह एक उद्देश्य से लिखी जाती है अर्थात् यह फिल्मों, टीवी सीरियलों आदि के निर्माण के लिए होती। यह ध्यान देने योग्य है कि लेखन की विधाओं में पटकथा लेखन एक आधुनिक और नई विधा है। वास्तव में, पटकथा लेखन स्वाध्याय के साथ-साथ एक व्यवसायिक लेखन है। जाहिर है कि लेखन की इस विधा के लिए स्वाध्याय के साथ-साथ लेखन के व्यवसायिक गुणों का होना जरूरी है।
तलाश एक अदद कहानी की पटकथा लेखन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है, एक अदद कहानी की। यकीन जानिए, कहानी कुछ भी हो सकती। सो कहानी के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है। मसलन, पूरी-की-पूरी रामायण, महाभारत या उनके एक-दो प्रसंग किसी फिल्म या धारावाहिक की कहानी हो सकती है। या इन ग्रंथों की कहानियों और पात्रों से प्रेरणा लेकर एक अच्छी कहानी गढ़ी जा सकती है। 
कथानक को समस्या, संघर्ष और समाधान में बांटने की एक सर्वमान्य लेखन-परंपरा की चर्चा की। इन तीन बिंदुओं के रूप में कथानक को प्रस्तुत करने का चलन सर्वथा नया नहीं है। स्कूली शिक्षा में हमें सिखलाया जाता है कि अपने प्रत्येक आलेख को तीन भागों यानी शुरुआत (Opening), मध्य भाग (Body) और अंत (Ending) में बांटे। आलेख-लेखन का यह सूत्र OBE (Opening-Body-Ending) या OBC (Opening-Body-Conclusion) के रूप में जाना जाता है।
ओपनिंग वाले हिस्से में जहां प्रस्तावना या विषय-वस्तु का परिचय होता है, बॉडी वाले भाग में विषय-वस्तु का वर्णन होता है, तो वहीं एंडिंग वाले पार्ट में विषय-वस्तु का निष्कर्ष या ;आद्धलेख का उपसंहार होता है। कमोबेश पटकथा-लेखन भी इसी अवधारणा पर नियोजित होती है। शायद सदियों से और आज भी स्कूल में ;आद्धलेख लिखने का यह प्रारूप जरूर सिखलाया जाता है। रोचक यह है कि इस रीति का पालन नहीं करने पर परीक्षक नंबर काट लेते हैं। अगर किसी आलेख के लिए 10 नंबर निश्चित है और किसी छात्र ने OBE के ढर्रे का पालन नहीं किया है, तो उसके 2-3 नंबर तो शर्तिया गए। सवाल है फिल्मी दुनिया में OBE के इस बहस से क्या मतलब है? मतलब है सरकार, बड़ा गहरा मतलब है। क्या यहां भी नंबर कटता है। जी, बिलकुल कटता है और 2-3 नंबर नहीं, पूरे-का-पूरा नंबर कट जाता है, मतलब ”बच्चा पर्चा-फेल“!
फिल्म-जगत में “टू मिनट मूवी” एक व्यवहारिक शब्दावली के साथ-साथ व्यवहारिक कार्यप्रणाली है। क्योंकि, फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के पास ज्यादा समय नहीं होता है कि घंटा, दो घंटा निकालें और किसी कहानी को आराम से सुनें या पढ़ें। कोई कथाकार या पटकथाकार जब किसी कहानी के सिलसिले में प्रोड्यूसर, निर्देशक या किसी फिल्म-मेकर या इन्वेस्टर से मिलता है, तो वे एक ही जुमला दोहराते हैं-”दो मिनट में बताइए, कहानी क्या है?“ यह प्रथा और जुमला कब से प्रचलित है, यह तो नहीं पता, लेकिन आज यह काफी चलन में है। इसलिए परंपरागत रुप से कहानी को थ्री प्वायंट्स ऑफ स्क्रीनप्ले यानी प्रिमाईस के रूप में में ढालना और कहने-सुनने की आदत डालना जरूरी है। और, सच बात तो यह है कि अगर कोई लेखक, पटकथा-लेखक या कथाकार किसी कहानी को दो मिनट में नहीं सुना सकता है, तो वह दो घंटे में भी नहीं सुना सकता है। ऐसे लोगों की जरुरत फिल्म इंडस्ट्री को भी नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि जो लोग फिल्में बनाते हैं, उनका पैसा, उनकी मेहनत, उनकी प्रतिष्ठा सब कुछ दांव पर लगी होती है। फिल्म हिट होती है, तो वे अर्श पर होते है, फिल्म पीटती या फ्लॉप होती है, तो वे फर्श पे नहीं बल्कि सड़क पर होते हैं। उनका समय बेशकीमती होता है। इसलिए जब भी अपनी कहानी लेकर उनसे मिलने जाएं, “टू मिनट मूवी” का होमवर्क जरुर कर लें। फिल्मी दुनिया में टू मिनट मूवी की स्थिति को कहावतों की बोली में कहें, तो यह मॉर्निंग शोज द डे (Morning shows the day) या पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगते हैं, की तरह है। इसलिए प्रिमाईस लेखन में कोताही एक पटकथा-लेखक के लिए आत्मघाती होता है। मतलब? जैसा कि ऊपर कहा है, आपकी पटकथा के परीक्षक ने आपका पूरे के पूरा नंबर काट लिया। मतलब यह कि कहानी का आइडिया, कथा-कहानी-पटकथा सब खारिज। वर्तमान में कोई प्रोड्यूसर, निर्देशक या कोई फिल्म-मेकर या इन्वेस्टर बड़ी मुश्किल से समय देता है या मिलता है। केवल तीन पंक्ति में प्रस्तुत एक प्रिमाईस के लिए वह अवसर हाथ से निकल जाए, तो आप और हम काहे को कथा-पटकथा लेखन सीखेंगे और काहे लिखेंगे!
एक कथा और पटकथा-लेखक के रूप में जब कोई कहानीकार एक कहानी का प्लॉट तैयार करता है, तो उसके जेहन में कुछ काल्पनिक दृश्य आते-जाते रहते हैं। फिर कहानी लिखनेवाला बड़े जतन से उन दृश्यों को एक के बाद एक क्रम में सहेजता है और लिख डालता है। इसी प्रकार, जब एक पटकथा-लेखक जब पटकथा लिखना शुरु करता है, तो ठीक ऐसी ही घटना उसके साथ भी होती है। उसके मस्तिष्क में पूरी कहानी दृश्य-दर-दृश्य, एक क्रम से, एक चलचित्र की तरह चलती जाती है। जिसे वह शब्दों का जामा पहनाकर एक पटकथा की शक्ल देता है। यहां यह जान लीजिए कि पटकथा-लेखक वह सौभाग्यशाली व्यक्ति या दर्शक है, जो एक फिल्म को सबसे पहले अपने दिमाग में देखता है और समझता है। पटकथा के एक अंग के रूप में वनलाईनर की अवधारणा नितांत अपने बम्बईया, अब मुम्बईया, पटकथाकारों के रचनात्मक दिमाग की उपज है। इसके महत्व और उपादेयता को समझते हुए पटकथा-लेखन का यह महत्वपूर्ण अंग अब हॉलीवुड फिल्मकारों को भी पसंद आने लगा है। तो, आईए जानते हैं कि वनलाईनर क्या है?
वनलाईनर किसी पटकथा की लगभग संवाद-विहीन संक्षिप्त दृश्यमय कहानी है। कहने का तात्पर्य यह कि जिस रुप में फिल्म को दिखानी होती है, यह ;वनलाईनरद्ध उसकी दृश्य-दर-दृश्य शाब्दिक प्रस्तुति है। अब सवाल यह है कि पटकथा लिखने से पहले वनलाईनर लिखना जरूरी है? जवाब है-जी हां, बहुत जरूरी है। क्योंकि, सबसे अहम बात यह कि इससे पूरी फिल्म की झलक मिल जाती है कि फिल्म कैसी दिखेगी या बनेगी। दूसरी अहम बात यह कि फिल्मी दुनिया में यह एक व्यवहारिक कार्यप्रणाली है। जैसा कि पिछले आलेखों में कह चुका हूं कि इस दुनिया से जुड़े लोगों के पास समयाभाव होता है। अक्सर प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स या खुद पटकथा-लेखक पूरी पटकथा के विस्तार और उसकी गहराई में नहीं जाना चाहते हैं। तब 100 या 120 पेज की पटकथा को अधिकतम चार-पांच पेज के रुप में लिख लिया जाता है, जो कि पटकथा का दृश्यवार विवरण यानी वनलाईनर होता है। तीसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि जिस तरह से एक अच्छा प्रिमाईस अच्छे कथानक और बेहतर पटकथा को जन्म देता है, कथा-पटकथा में पर्याप्त नाटकीयता भी लाता है। ठीक यही काम वनलाईनर का भी है, बल्कि इससे कई कदम आगे यह कथानक की दिशा, घटनाओं-परिघटनाओं की तारतम्यता और उसकी नाटकीयता को सटीक और प्रभावशाली ढंग से पेश करता है। चैथा कारण यह है कि कोई कथा या कहानी, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, विस्तार से पटकथा का आभास नहीं देती है। इसी प्रकार किसी कथा या कहानी पर आधारित पटकथा हू-ब-हू ;शत-प्रतिशतद्ध कथा या कहानी की प्रस्तुति नहीं होती है। यहां उस व्यवहारिक चैलेंज को समझिए, जो एक प्रोड्यूसर या डायरेक्टर के सामने आता है। कथा या कहानी से उसे पूरी फिल्म की झलक नहीं मिलती है और समयाभाव में पूरी पटकथा को वह पढ़ना नहीं चाहता है। लिहाजा वह बीच का रास्ता “कथा-मिश्रित-पटकथा“ यानी वनलाईनर चाहता है। इसलिए वनलाईनर में कथा या कहानी और पटकथा दोनों के तत्वों का समावेश होता है अर्थात् बिना सम्वाद कहानी और दृश्य को एक साथ लिखा जाता है।
फिल्म के लिए पहले कहानी लिखी जाती है, फिर पटकथा और आखिर में संवाद ;डायलॉगद्ध। डायलॉग राइटर कहानी और पटकथा में संवाद जोड़कर उसके सिलसिले को आगे बढ़ाता है। लेकिन डायलॉग राइटर ;संवाद लेखकद्ध बनने के लिए आपमें कई खूबियां होनी चाहिए। आपमें किसी बात को बहुत कम शब्दों में कहने की कला आनी चाहिए, वो भी रोचक अंदाज में, जैसे-“मेरे पास मां है”
ये मशहूर डायलॉग था तो बहुत छोटा, लेकिन चार शब्दों में एक बेटे ने अपनी मां के लिए सारी ममता उड़ेल दी थी। अच्छे डायलॉग राइटर वहां कुछ भी लिखने से बचते हैं, जहां कलाकार अपने एक्स्प्रेशन ;हाव भावद्ध से ही बहुत कुछ कह जाएं। आपको आज के चलन और लोगों की बदलती मानसिकता को भी समझना होगा। मुगल-ए-आजम जैसी फिल्मों के दौर में उर्दू भाषा में बड़े-बड़े डायलॉग्स का चलन था, लेकिन आज छोटे, सरल और चुटीले डायलॉग्स का जमाना है, इसीलिए हिंदी के साथ आप अच्छी अंग्रेजी भी जानते हैं, तो सोने पे सुहागा। अच्छी अंग्रेजी जानने पर आप अंग्रेजी डायलॉग राइटर के डायलॉग्स भी ट्रांसलेट कर सकते हैं। अगर आपकी उर्दू अच्छी है, तो ये पीरियड फिल्म के डायलॉग लिखने में काम आ सकती है। डायलॉग राइटर के रुप में आपको फिल्म के माहौल को समझ कर शब्द चुनने होंगे किरदारों की सामाजिक, आर्थिक और मानसिक परिस्थितियां समझनी होंगी। किरदार पढ़ा लिखा है, या अशिक्षित, एन.आर.आई. है या ठेठ उत्तरप्रदेश का, इसी हिसाब से उसकी हिंदी का टोन बदलना होगा। डायलॉग राइटर बनने के लिए आपको किसी फिल्म डायरेक्टर या स्क्रिप्ट राइटर से संपर्क करना होगा। आप उसके असिस्टेंट के रुप में काम करते हुए भी आगे बढ़ सकते हैं। जहां तक वेतन का सवाल है, टीवी जगत में हर एपिसोड या शो के हिसाब से पैसा मिलता है, जबकि फिल्मी दुनिया में हर फिल्म के हिसाब से।
फिल्म बनाने में निम्न क्रम से गुजरना पड़ता है-
01. स्क्रिप्ट
02. स्टोरीबोर्ड या चित्र
03. कपड़े
04. मेकअप
05. सेट पर शूटिंग
06. स्पेशल इफेक्ट्स् फिल्माना
07. संगीत रिकॉर्ड करना
08. आवाज मिलाना
09. कंप्यूटर से तैयार की गयी तसवीरें
10. एडिट करना
धर्म शास्त्र उन लोगों का जिक्र करती है “जिन के ज्ञानेन्द्रिय ;“परख-शक्ति”द्ध, अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।” इसलिए माता-पिता का लक्ष्य होना चाहिए, अपने बच्चों के दिल में ऐसे उसूल बिठाना जिनकी मदद से, वे बड़े होकर जब मनोरंजन के बारे में खुद फैसला करने के लिए आजाद हों, तब सही फैसले कर सकें। ऐसे बहुत-से जवान हैं जिन्हें बचपन से अपने माँ-बाप से बढ़िया तालीम मिली है। बहुत-से माता-पिताओं ने अपने बच्चों को परख-शक्ति का इस्तेमाल करना सिखाया है ताकि मनोरंजन के मामले में भी वे सही चुनाव कर सकें। यह सच है कि फिल्म इंडस्ट्री जो फिल्में बनाती है, उनमें से ज्यादातर अच्छी नहीं होतीं। दूसरी तरफ, जब धर्म शास्त्र के सिद्धांतों के मुताबिक चलते हैं, तो वे अच्छे मनोरंजन का मजा ले पाते हैं जिनसे न सिर्फ उन्हें ताजगी मिलती है बल्कि वे अच्छा भी महसूस करते हैं। बहुत-से देशों ने रेटिंग का तरीका अपनाया है। फिल्म में दिए रेटिंग के निशान से साफ पता चलता है कि किस उम्र के लोग यह फिल्म देख सकते हैं। इसके अलावा, हर देश की अपनी एक कसौटी होती है जिसके मुताबिक फिल्म की रेटिंग की जाती है। इसलिए एक देश में जो फिल्म जवानों के लिए मना है, वही शायद दूसरे देश में जवानों को देखने की छूट हो। बच्चों और जवानों के लिए बनायी गयी कुछ फिल्मों में जादू-टोना, भूतविद्या या दुष्टात्माओं के दूसरे काम दिखाए जा सकते हैं।
विजुअल-आडियो मीडिया (दृश्य-श्रव्य माध्यम) का आविष्कार मनुष्य जीवन के लिए सर्वप्रथम आश्चर्य का विषय था जो आगे चलकर मनोरंजन का मुख्य माध्यम बना और अब साहित्य की भँाति आॅडियो-विजुअल मीडिया भी समाज का दर्पण ही है। इस आडियो विजुअल मीडिया में फिल्म, दूरदर्शन तथा वर्तमान में इन्टरनेट भी शामिल हो गया है। परिणामस्वरूप फिल्म से समाज का निर्माण और समाज से फिल्म का निर्माण का रूप उभर कर सामने आया है। यह बात कि फिल्म समाज को क्या दिखाना चाहता है? तथा समाज फिल्म से क्या देखना चाहता है? यह बात फिल्म और समाज दोनांे ओर से सदा उठती रही है। निश्चय ही इसमंे मन का व्यापक न होना ही विवाद का मुख्य कारण रहा है। ऐसा न होने से ही अपनी अपनी दृष्टि से देखते हुये ही विचार व्यक्त किये जाते है।

फिल्म जगत से व्यक्त वही कहानी, गीत, संगीत, निर्देशन, अभिनय समाज द्वारा जाने पहचाने और याद रखे जाते है। जो आत्मा को स्पर्श करती है। चंूकि यह आत्मा सर्वव्यापी है इसलिए इसका अधिकतम स्पर्श अधिकतम भीड़ को प्रभावित करती है। जिस प्रकार यह जितना सत्य है उसी प्रकार यह भी सत्य है कि जो व्यक्ति स्वयं आत्मा स्वरूप हो तो वह निश्चय ही आत्मीय कहानी, गीत, संगीत, निर्देशन अभिनय का सर्वोच्च पारखी व चुनने वाला भी होगा। सर्वोच्चता वहीं है जो सब में व्याप्त हो जाये, कहानियाँ वही हैं, जो सबसे लम्बी यात्रा पूर्ण किया हो तथा पाया उसी ने है जो पहले पहचाना है।

श्री लव कुश सिंह विश्वमानव द्वारा लिखे/विचार प्रस्तुत किये गये-फिल्म/टी.वी सिरियल के स्क्रिप्ट
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क्र.सं. टाइटल                                फिल्म/सिरियल                    भाषा                       स्थिति
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1. विश्वगुरू-द ब्रेन टर्मिनेटर बालीवुड फिल्म          हिन्दी, अंग्रेजी व बंग्ला               पूर्ण
    (रिप्रेजेन्टेटिव सिनेमा आॅफ इण्डिया)
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2. द डर्टी साधु-
    अण्डरस्टैण्डिंग ट्रांसडेन्ट बालीवुड फिल्म           हिन्दी, अंग्रेजी                        पूर्ण
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3. माॅय टेन वाइफ आॅन अर्थ बालीवुड फिल्म           हिन्दी                                  पूर्ण
     - अण्डरस्टैण्डिंग फिमेल
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4. अगरबत्ती पे करोड़पत्ती                बालीवुड फिल्म            हिन्दी                                  पूर्ण
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5. डेमोक्रेसी-द रियल ऐम                 बालीवुड फिल्म            हिन्दी, अंग्रेजी                        पूर्ण
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6. 9डी-नाइन डाइमेन्सन                 हॅालीवुड फिल्म             हिन्दी, अंग्रेजी                        पूर्ण
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7. किरनिया-
    एक नारी की कहानी भोजपुरी फिल्म             भोजपुरी                              पूर्ण
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8. जय माँ कल्कि                           बालीवुड फिल्म             हिन्दी                                  पूर्ण
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9. विश्वभारत                                 टी.वी.सिरियल              हिन्दी                                विचार
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