पटकथा कैसे लिखें
ठंडा मतलब...., डर के आगे जीत है, सीधी बात नो बकवास...। ये लाइनें सभी को याद होंगी। ये लाइनें कंपनियों के प्रोडक्ट के विज्ञापन के लिए उपयोग की गई हैं। ऐसी लाइनों को जिंगल्स कहा जाता है। जो यह लाइनें लिखते हैं, उन्हें स्क्रिप्ट राइटर कहा जाता है।
हालांकि स्क्रिप्ट राइटर का काम सिर्फ जिंगल लिखना ही नहीं होता है, बल्कि और कई चीजें हैं, जो स्क्रिप्ट राइटर करता है, लेकिन शुरुआत जिंगल्स से ही होती है। एड गुरु प्रहलाद कक्कड़ और मशहूर गीतकार प्रसून जोशी स्क्रिप्ट राइटिंग में जाना-माना नाम हैं। स्क्रिप्ट राइटिंग कहानियां और कविताएं लिखने से कुछ अलग होता है। स्क्रिप्ट में लिखी गई हर बात का फिल्मांकन किया जाता है। इसमें लेखक को यह सोचकर लिखना पड़ता है कि उसके द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट पढ़ी नहीं, देखी जाएगी। उसकी मेहनत का परिणाम उसे फिल्मांकन के बाद मिलता है। इस क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए आपमें रचनात्मकता का होना आवश्यक है। कम शब्दों आपको प्रोड्क्टस की विशेषताओं को उपभोक्ताओं तक पहुंचाना होता है। ऐसी जिंगल्स की रचना करनी पड़ती है कि वह सुनते या पढ़ते से ही उसके जेहन में वह प्रोडक्ट आ जाए। वैसे कोई डिग्री कोर्स तो नहीं होता पर ये जर्नलिज्म के अंतर्गत आता है। कल तक विज्ञापन ग्राहकों की संतुष्टि के लिए बनाए जाते थे लेकिन आज जो विज्ञापन आ रहे हैं वे ग्राहकों के संतोष के साथ उसकी खुशी और मनोरंजन को भी महत्व दे रहे हैं। मानवीय भावनात्मक पक्षों को छूते विज्ञापन न सिर्फ देर तक याद रहते हैं बल्कि मन पर भी गहरा असर छोड़ते हैं। जो युवा लिखने-पढ़ने के साथ मानवीय संवेदनाओं को पकड़ कर अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते हैं उनके लिए भी इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। हालांकि स्क्रिप्ट राइटिंग पूरी तरह आपकी विश्लेषण और कल्पना क्षमता पर आधारित है, लेकिन फिर भी इसके लिए जर्नलिज्म कोर्स कर लिया जाए तो बेहतर होगा।
पटकथा कैसे लिखें - पटकथा लेखक बनने के छह गुण (पटकथा-लेखन सूत्र - 1 व 2)
पटकथा लेखन एक कला है। अनेक विद्वान लेखन की इस विधा को व्यवसायिक लेखन का एक रूप मानते हैं। जो बहुत हद तक सही है। पटकथा ‘स्वांतः सुखाय’ नहीं लिखी जाती है। यह एक उद्देश्य से लिखी जाती है अर्थात यह फिल्मों, टीवी सीरियलों आदि के निर्माण के लिए होती। यह ध्यान देने योग्य है कि लेखन की विधाओं में पटकथा लेखन एक आधुनिक और नई विधा है। वास्तव में, पटकथा लेखन स्वाध्याय के साथ-साथ एक व्यवसायिक लेखन है। जाहिर है कि लेखन की इस विधा के लिए स्वाध्याय के साथ-साथ लेखन के व्यवसायिक गुणों का होना जरूरी है। सुविधा और स्पष्टता के लिए इन गुणों (ुनंसपजपमे) को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-
अ. स्वाध्याय श्रेणी के गुण
1. स्वाध्याय श्रेणी के गुण ‘इन-बिल्ट’ और ‘डिफॉल्ट’ गुण हैं। इनमें पहला है- कहानियों में रुचि होना। सफल पटकथा लेखक बनने के लिए नयी-नयी कहानियां पढ़ने और सुनने का केवल शौक नहीं बल्कि एक जुनून होना जरूरी है।
2. पटकथा लेखक केवल कहानियां पढ़ने और सुनने के जुनूनी नहीं होते हैं, बल्कि इससे दो कदम आगे वे कहानियां देखने में यकीन रखते हैं। इसलिए समाज से कटकर नहीं, समाज जुड़कर रहना और सामाजिक गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हैं। कहने का तात्पर्य है, एक पटकथा लेखक बनने के लिए घटनाओं और परिघटनाओं का अच्छा प्रेक्षक यानी ऑब्जर्वर और विश्लेषक होना आवश्यक है यानी तेल देखिए और तेल की धार देखिए।
3. केवल कहानियां देखने से क्या होता है? सबसे जरूरी है कहानियां कहना, किस्सागो होना। जी! एक सफल किस्सागो होना एक सफल पटकथा लेखक होने का एक महत्वपूर्ण गुण है।
पटकथा-लेखन सूत्र - 1: कहानी पढ़ो, देखो और कहो।
ब. व्यवसायिक श्रेणी के गुण
1. पटकथा लेखन की कला में निपुणता के लिए तीन व्यवसायिक मौलिक गुण बहुत जरूरी हैं। पहला, जिस भाषा में पटकथा लिखी जानी है, उस भाषा पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए। इससे भावनाओं को सहजता से व्यक्त किया जा सकता है। असहज भाषा में लिखी गयी पटकथा को कोई पढ़ने के लिए तैयार नहीं होता है। यह ध्यान रहे कि फिल्म-निर्माण से जुड़े अधिकांश लोग भाषा के विद्वान नहीं होते हैं। वे आम बोलचाल की भाषा में लिखी गयी पटकथा को ज्यादा पसंद करते हैं। ‘उच्च कल्पनाशक्ति’ पटकथा लेखन की दूसरी सबसे बड़ी जरूरत है। जिनकी कल्पनाओं के घोड़े जितनी तेज दौड़ते हैं, वे उतनी ही अच्छी पटकथा लिख सकते हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि भाषाई रूप से समृद्ध होने पर एक पटकथा लेखक अपनी कल्पना को स्पष्टता से अभिव्यक्त कर सकता और सादगी से कह सकता है।
2. पटकथा पाठक द्वारा पढ़ी नहीं जाती है बल्कि दर्शक द्वारा देखी और सुनी जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो पटकथा एक कागजी और कच्चा दस्तावेज है, जिसका रूपान्तरण फिल्म या धारावाहिक में होता है। इसलिए एक सफल पटकथा लेखक बनने के लिए जरूरी है कि ‘दृश्य-श्रव्य बोध” यानि ‘ऑडियो-विजुअल सेंस’ काफी डेवलप्ड हो।
पटकथा-लेखन सूत्र - 2: कल्पना के पंखों पर सवार हो सहज भाषा में लिखकर कहानी दिखा दो।
पटकथा कैसे लिखें - क्या करते हैं एक सफल पटकथा लेखक? (पटकथा-लेखन सूत्र - 3)
तलाश एक अदद कहानी की पटकथा लेखन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है, एक अदद कहानी की। यकीन जानिए, कहानी कुछ भी हो सकती। सो कहानी के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है। मसलन, पूरी-की-पूरी रामायण, महाभारत या उनके एक-दो प्रसंग किसी फिल्म या धारावाहिक की कहानी हो सकती है। या इन ग्रंथों की कहानियों और पात्रों से प्रेरणा लेकर एक अच्छी कहानी गढ़ी जा सकती है। बचपन की किसी परी कथा पर भी फिल्म बन सकती है। उदाहरणस्वरुप, सिंड्रेला की कहानी। जनमानस और समाज में रची-बसी कोई भी घटना कहानी हो सकती है। कोई बिलकुल नयी कल्पना हो सकती है। जैसे, जे.के. रॉलिंग द्वारा अभिकल्पित हैरी पॉटर की कहानी। लेकिन, किस कहानी पर फिल्म बनेगी और किस पर नहीं, फिल्म इंडस्ट्री में इसका नजरिया बहुत साफ है। और, यह दृष्टिकोण तय होता है, कुछ मौलिक तर्कों और प्रश्नों के आधार पर।
सामाजिक घटनाओं और प्रसंगो से उपजती है कथा-पटकथा
आइए, एक वर्कआउट करते हैं और एक घटना के इर्दगिर्द उप-घटनाओं का तानाबाना बुनते हैं। जैसे कि आप चाहें तो दिल्ली के पास स्थित नोएडा में हुई आरुषि-हत्याकाण्ड पर एक बेहतरीन क्राईम-थ्रिलर कहानी लिख सकते हैं। जरा इन तर्कों और प्रश्नों पर गौर कीजिए-
एक, आखिर हत्याकाण्ड की उस रात वाकई में क्या हुआ था?
दो, हत्या कैसे की गई?
तीन, हत्यारे की मानसिक अवस्था ऐन हत्या से पहले और बाद में क्या थी?
चार, हत्यारे ने हत्या के बाद लाश को कैसे ठिकाने लगाने की कोशिश की? लाश ठिकाने लगाने के दौरान उसकी मानसिक हालत क्या थी?
पांच, हत्या के अहम् सबूतों को कैसे मिटाया गया? क्या उससे कुछ अहम सबूत छूट तो नहीं जाता है? आदि-आदि!
खोजिए उत्तर और बन जाइए पटकथा लेखक
फिलहाल उपर्युक्त हत्याकाण्ड से जुड़े प्रश्नों के उत्तर बाद में खोज या गढ़ लीजिएगा, मगर जो नोट करनेवाली बात है, वह है। इस घटना (दुर्घटना) से उपजे उपर्युक्त प्रश्न? प्रश्न बोले तो, समस्या यानी प्रॉब्लम! जी, यही प्रॉब्लम है पटकथा का एक मूल आधार।
आइए, इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए हत्याकाण्ड से जुड़ी समस्याओं में थोड़ा और इजाफा करते हैं और कल्पना के घोड़े दौड़ा कर कहानी का विस्तार करते हैं।
1. जब हत्यारा आरुषि की हत्या कर रहा होता है, तो क्या कोई उसे देख लेता है?
2. यदि हां, तो कौन?
3. यह बात हत्यारे को मालूम होती है कि नहीं?
4. यदि होती है, तब हत्यारा क्या करता है?
5. यदि उसे नहीं मालूम होता है, तब क्या होता है?
6. जो चश्मदीद हत्यारे को देख लेता है, वह क्या करता है?
7. उसकी मानसिक हालत कैसी होती है।
अब कल्पना कीजिए कि हत्यारा क्या-क्या कदम उठाएगा और वह चश्मदीद क्या-क्या करेगा-करेगी?
समस्या बनाम समाधान
जी! समस्या और समाधान एक पटकथा की रीढ़ होती है। पहले समस्या खोजिए या पैदा कीजिए और फिर उसका समाधान यानी उत्तर दीजिए। एक सफल पटकथा लेखक यही करते हैं।
मसलन, उपर्युक्त कुछ प्रश्नों के काल्पनिक और संभावित उत्तर यूं हैं-
प्रश्न: जब हत्यारा आरुषि की हत्या कर रहा होता है, तो क्या कोई उसे देख लेता है? उत्तर: हां।
प्रश्न: यदि हां, तो कौन? उत्तर: पड़ोस में रहनेवाली आरुषि की हमउम्र सहेली।
प्रश्न: यह बात हत्यारे को मालूम होती है कि नहीं? उत्तर: हां, यह बात उसे मालूम हो जाती है।
प्रश्न: यदि हत्यारे को यह बात मालूम हो जाती होती है, तब वह क्या करता है? उत्तर: हत्यारा उस चश्मदीद को जान से मारना चाहता है, ताकि उसके खिलाफ कोई सबूत न रहे।
प्रश्न: जो चश्मदीद (आरुषि की हमउम्र सहेली) हत्यारे को देख लेती है, वह क्या करती है, उसकी मानसिक हालत कैसी होती है? उत्तर: वह बहुत डर जाती है, डर के मारे वह बाहर कहीं बहुत दूर चली जाती है।
अरे, यह क्या? आप अभी से अपने दिमाग में एक फिल्म देखने लगे! कमाल है!! अजी, कल्पना लोक से बाहर आइए, हुजूर!!!
तो, उपर्युक्त कथ्य और कथन से क्या निष्कर्ष निकलता है? इनसे जो बात स्पष्ट होती है, वह है- पटकथा के लिए किसी कथा या घटना में एक या कई समस्याएं होती हैं। फिर, उन समस्याओं का समाधान यानी उत्तर ढूंढा जाता है। जी! यह एक पटकथा की पहली शर्त है।
पटकथा-लेखन सूत्र - 3: किसी कथा या घटना से जुड़ी समस्या और उसके समाधान को समझिए और लिख डालिए।
पटकथा कैसे लिखें - पटकथा की विवेचना (पटकथा-लेखन सूत्र - 4)
यदि आपके मन और जेहन में सवालों के कीड़े कुलबुला रहें हैं, तो पटकथा लेखन से जुड़े प्रश्न पूछिए और मुझसे जानिए उनके उत्तर और समाधान ! आप और हम पता लगाएंगे कि सार्वकालिक महान सुपर-डुपर हिट फिल्म “शोले” की मौलिक समस्याएं क्या थीं? इस फिल्म के पटकथा लेखकद्वय सलीम-जावेद ने उन समस्याओं के क्या समाधान दिए? बस,
फिल्म ‘शोले’ की कथा-पटकथा की विवेचना
किसी फिल्म की कहानी का विस्तार मन में उठे सहज प्रश्नों (समस्या) और उनके उत्तर (समाधान) से होता है। एक पटकथा लेखक कोई आसमान से टपकी हुई प्रतिभा नहीं है कि ये प्रश्न केवल उसी के मन में उपजते हैं। ये सार्वजनिक प्रश्न होते हैं। लेकिन, इनके उत्तर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। दरअसल, एक प्रोड्यूसर या डायरेक्टर को समस्या के समाधान में अंतर यानी भिन्नता के कारण एक कथा-पटकथा लेखक की आवश्यकता होती है। क्योंकि, पटकथा लेखक अपनी लेखन प्रतिभा और बेजोड़ कल्पनाशक्ति के समुचित उपयोग से एक अद्भुत पटकथा का सृजन करता है। आइए, इसे एक महान सार्वकालिक फिल्म ‘शोले’ की कथा-पटकथा के संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन, इससे पहले की इस महान सिनेमा की पटकथा की शुरुआत से विवेचना करें, एक-दो बातें जान लेना चाहिए फिल्म ‘शोले’ आज से 39 साल पहले सन् 1975 में 15 अगस्त को रिलीज हुई थी। इस फिल्म के निर्माण पर तीन करोड़ रुपये खर्च हुए थे। शोले जब रिलीज हुई, तब इसे बहुत ही ठंडा रेस्पॉन्स मिला था। इस पर फिल्म के निर्देशक ने सलीम-जावेद से कहा कि इसका क्लाइमैक्स चेंज कर देते है और जय (अमिताभ बच्चन) को जिंदा रखते है, पर लेखक जोड़ी ‘सलीम-जावेद’ ने साफ मना कर दिया। आज इस फिल्म की ऐतिहासिक सफलता को दुनिया सलाम करती है। यही कारण है कि जनवरी 2014 में इस फिल्म को 3डी में भी रिलीज किया गया है। शोले भारतीय फिल्म इतिहास की पहली ऐसी फिल्म है, जिसके संवादों को कैसेट के जरिए रिलीज करके म्यूजिक कम्पनी एचएमवी ने लाखों रुपये की कमाए। सन् 1999 में बी. बी. सी. इंडिया ने इस फिल्म को ‘सहस्राब्दी की फिल्म’ का खिताब दिया। इंडिया टाइम्ज मूवीज ने इसे बॉलीवुड की शीर्ष 25 फिल्मों में शुमार किया किया। 50 वें वार्षिक फिल्म फेयर पुरस्कार के निर्णायकों ने एक विशेष पुरस्कार दिया जिसका नाम 50 सालों की सर्वश्रेष्ठ फिल्म फिल्मफेयर पुरस्कार था।
शोले की शुरुआती पटकथा
स्पष्टीकरण- कृपया नोट कर लें, नीचे लिखी गयी पटकथा केवल और केवल पढ़ने की सुविधा के लिए एक क्रम में पेश की गयी है। वास्तविक पटकथा ऐसे नहीं लिखी जाती है। तो कैसे लिखी जाती है? आपको बता दें, पटकथा-लेखन का एक निश्चित प्रारूप यानी फॉर्मेट (Format) होता है। फिलहाल तो शोले की इस कथा-पटकथा का आनंद उठाइए।,
फिल्म की शुरुआत रामगढ़ रेलवे स्टेशन पर एक रेलगाड़ी के आने से होती है। गाड़ी रूकती है और उससे वर्दी पहने हुए एक जेलर उतरता है। उसका स्वागत करने के लिए एक आदमी खड़ा है।
जेलर- अ....., ठाकुर साहब के य.......हाँ।
आदमी- आइए जेलर साहब, .आइए।
वे दोनों रेलवे स्टेशन से बाहर आते हैं। रेलगाड़ी सीटी बजाती है। वे दोनों घोड़े पर सवार होते हैं। मैदान, पहाड़, घाटी, ताल-तलैया, ढोरों की रेहड़ को टापते हुए वे ठाकुर बलदेव सिंह की हवेली पहुंचते हैं। ठाकुर बलदेव सिंह सीढ़ियों से उतरते हुए उन्हें आता हुआ देखते हैं। जेलर घोड़े से उतर कर हवेली में प्रवेश करता है।
जेलर- (हवेली के एक रूम में प्रवेश करते ही) ठाकुर साहब, आपका खत मिलते ही मैंने सोचा कि आपने मुझे याद किया है। अगली गाड़ी से चला आया।
ठाकुर बलदेव सिंह - जेलर साहब, आपको एक तकलीफ देना चाहता हूं। (सधी हुई गम्भीर आवाज में)
जेलर- हां-हां, कहिए। बिलकुल। कोई भी काम हो।
ठाकुर बलदेव सिंह- मुझे दो आदमियों की जरूरत है।
जेलर- दो आदमी?
ठाकुर बलदेव सिंह- रामलाल (लहजे में आदेश देने का भाव होता है)।
ठाकुर का नौकर रामलाल एक दराज खोलकर एक तस्वीर निकालता है और जेलर को देता है। जेलर तस्वीर देखता है।
ठाकुर बलदेव सिंह- इन्हें पहचानते हैं आप?
जेलर (तस्वीर देखते हुए)- ठाकुर साहब, शायद ही ऐसा जेल हो, जिसमें ये दोनों न गए हों। यह वीरू है, और यह है जयदेव। दोनों के दोनों पक्के बदमाश, एक नंबर के चोर, छंटे हुए गुंडे हैं।
ठाकुर बलदेव सिंह- जानता हूं। लेकिन, काम कुछ ऐसा है कि मुझे ऐसे ही आदमियों की जरूरत है।
जेलर- ठाकुर साहब, मैं यह तो नहीं जानता की आपको क्या काम है? लेकिन, इतना जरूर जानता हूं, ये दोनों किसी काम के नहीं।
ठाकुर बलदेव सिंह- नहीं जेलर साहब। अगर एक तरफ इनमें ये सब खराबियां हैं, तो दूसरी तरफ कुछ खूबियां भी हैं।
जेलर- खोटा सिक्का तो दोनों ही तरफ से खोटा होता है।
ठाकुर बलदेव सिंह- सिक्के और इंसान में शायद यही फर्क है। मुझे याद है, दो बरस पहले की बात है। डिस्ट्रिक्ट जमालपुर में मैंने इन दोनों को गिरफ्तार किया था। शाम ढलने से पहले हमें दामली पुलिस स्टेशन पहुंचना था। कोई दूसरा इन्तजाम न हो सका। (फ्लैशबैक शुरु.......) इसलिए हम मालगाड़ी में आ रहे थे। मैं, दो सिपाही और हथकड़ियां पहने ये दोनों बदमाश - जयदेव और वीरू!
फ्लैशबैक - ठाकुर बलदेव सिंह याद करते हुए इस घटना के बारे में जेलर को बताता है।
क्रमश...............
पटकथा-लेखन सूत्र - 4: प्रत्येक फिल्म को बड़े ध्यान से देखिए, बार-बार देखिए। फिल्म की घटनाओं के संयोजन को सहेजिए और उन्हें लिखने की सफल कोशिश कीजिए।
पटकथा कैसे लिखें - कथानक से उपजी समस्याएं और समाधान (पटकथा-लेखन सूत्र - 5 व 6)
‘शोले’ के कथानक से उपजी समस्याएं और समाधान
शोले का कथानक ‘जेलर के रामगढ़ आने से शुरू होता है और ठाकुर के फलैशबैक में जाने पर खत्म होता है’। इस कथानक में मोटे तौर पर क्या-क्या ‘समस्याएं’ और ‘समाधान’ हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि लेखक-जोड़ी सलीम-जावेद ने समाधान कैसे दिया है
सवाल 1 - ठाकुर बलदेव सिंह जेलर को रामगढ़ क्यों बुलाता है?
उत्तर: ठाकुर बलदेव सिंह को दो आदमियों की जरूरत है, जिसके बारे में जेलर बेहतर जानता है।
सवाल 2 - वे दो आदमी कौन हैं? ठाकुर बलदेव सिंह और जेलर किसके बारे में बात करते हैं?
उत्तर: ठाकुर बलदेव सिंह और जेलर जय और वीरू के बारे में बात करते हैं।
सवाल 3 - ठाकुर बलदेव सिंह जय और वीरू के बारे में क्यों बात करता है?
उत्तर: ठाकुर का काम कुछ ऐसा है कि वह जय और वीरू ही कर सकते हैं। (कुछ प्रश्न: वह काम क्या है, जिसे जय और वीरू ही कर सकते हैं? इसका उत्तर अभी क्यों नहीं दिया गया है? फिल्म में इसका उत्तर कब दिया गया है?)
सवाल 4 - जय-वीरू के बारे में जेलर की क्या राय है?
उत्तर: जेलर के अनुसार, जय-वीरू पक्के बदमाश, एक नंबर के चोर, छंटे हुए गुंडे हैं। खोटे सिक्के की तरह दोनों किसी काम के नहीं हैं।
सवाल 5 - ठाकुर जय-वीरू के बारे में क्या विचार रखता है?
उत्तर: ठाकुर का मानना है कि सिक्का और इंसान में फर्क होता है।
सवाल 6 - अब तक की कथानक का मूल उद्देश्य क्या है?
उत्तर: अब तक की कथानक का उद्देश्य जय और वीरू को दर्शक से परिचित करवाने के लिए पृष्टभूमि तैयार करना है, ताकि कथानक से उनको जोड़ा जा सके यानी हीरो के एंट्री के लिए जमीन तैयार करना।
सवाल 7 - क्या अब तक प्रस्तुत कथानक से शोले फिल्म की मूल समस्या उजागर होती है?
उत्तर: इसका उत्तर पांचवें सवाल के जवाब से जुड़ा है, वह है- अगर एक तरफ जय-वीरू में कई खराबियां हैं, तो दूसरी तरफ उनमें कुछ खूबियां भी हैं। इसे सहज रूप में कहें तो यह है- ‘इंसान में बुराई के साथ अच्छाई भी होती है।’ यह फिल्म की मौलिक स्थापनाओं में से एक है। यह शोले के कथानक की दार्शनिक पृष्टभूमि है, मौलिक समस्या का एक अंश है।
हमने क्या सीखा?
ये थे अब तक की कथानक से खड़े हुए कुछ मौलिक प्रश्न। इनमें कुछ के उत्तर यहीं पर दिए गए हैं, कुछ के उत्तर फिल्म में बाद दिए गए हैं। इस पहले सीन की कुछ सबसे महत्वपूर्ण बातें जो समझने लायक हैं, वे हैं-
एक, सलीम-जावेद ने सबसे बड़ी समस्या हीरो को परदे पर उतारना माना है, इसलिए वे बिना ताम-झाम के सीधे-सीधे जय-वीरू के बारे में संवाद शुरू करते हैं। दरअसल, किसी कहानी में भी हीरो की एंट्री एक खास घटना है। क्यों? क्योंकि कहानी का केंद्रीय पात्र वही है। कथानक की घटनाएं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष से, उससे जुडी होती हैं।
दो, आप पूछ सकते हैं कि सलीम-जावेद ने सबसे बड़ी समस्या हीरो को परदे पर उतारना क्यों माना है? क्योंकि, अभी तक वर्तमान कथानक में हीरो कहां है, यही पता नहीं है यानि कहानी की एक बड़ी समस्या है नायक की तलाश।
ठाकुर को जय और वीरू की जरूरत है। सो फलैशबैक में केवल उसके बारे बताया गया है, अभी तो उसे ढूढ़ा जाना जरूरी है। उन्हें ठाकुर तक पहुंचाना एक समस्या है। आप सभी ने फिल्म देखी है, आपको याद होगा कि एक जगह जेलर कहता है- ‘अगर आजकल वे किसी जेल में हैं, तो आसानी से मिल जाएंगे। और, अगर कहीं बाहर हैं, तो ऐसे लोगों का कोई ठिकाना तो होता नहीं।’
सलीम-जावेद ने इसका समाधान दिया है कि वे दोनों अभी जेल में नहीं हैं। इसलिए उनका गिरफ्तार होना जरूरी है। तब वे ठाकुर के पास पहुंचेंगे। मतलब? मतलब कहानी में घटनाओं को पिरोकर रोचकता और जिज्ञासा को बढ़ाना, और क्या!!! आखिर टिकट के पैसे कैसे वसूल होंगे!!!
तीन, संवाद के दरम्यान और फलैशबैक से उनकी (जय और वीरू) खूबियों को उभारने की सफल कोशिश करते हैं। यह समझने के लिए एक बार फिर फिल्म देखना जरूरी होगा।
पटकथा-लेखन सूत्र - 5: बेहतर कथा और पटकथा-लेखन के लिए मूल कथानक को चिह्नित कीजिये और कोशिश कीजिये पाठक और दर्शक को इसके बारे में जल्द-जल्द से पता चले।
पटकथा-लेखन सूत्र - 6: मूल कथानक पर कैसे आएं, इसकी योजना करें और तब स्क्रिप्ट लिखें।
पटकथा कैसे लिखें - पटकथा के प्रस्थान-त्रयी (पटकथा-लेखन सूत्र - 7)
एक कथानक का बीजारोपण कैसे होता है, उसमें अंकुर कैसे आता है, वह कैसे पेड़ बनता है, उसकी शाखाएं कहां-कहां फैल जाती हैं,३आदि-आदि? जी हां, नाटक और फिल्म के दिग्गजों ने इसका एक फॉर्मेट तैयार किया है,
एक कथा का पटकथा के रूप में रूपांतर और लेखन के लिए सबसे शुरूआती चरण है कि कहानी को तीन प्वायंट पर कसें। ये तीन प्वायंट है- प्रस्तावना, संघर्ष और समाधान। अनेक विद्वान इन तीन बिंदुओं को कहानी की समस्या, नायक-प्रतिनायक का संघर्ष और कहानी का उपसंहार कहते हैं। अंग्रेजी में इन्हें
1. प्रपोजिशन (Proposition), एक्सपोजिशन (Exposition) या कनफ्लिक्ट (Conflict),
2. स्ट्रगल (Struggle) या प्रोटागोनिस्ट्स (नायक) एंड एन्टागोनिस्ट्स (प्रतिनायक या विलेन) एक्शंस (Protagonist’s and Antagonist’s Actions) और
3. रिजॉल्यूशन (Resolution) कहते हैं।
पटकथा-लेखन के लिए अंग्रेजी का थोड़ा ज्ञान जरूरी है। यह सीखने की जिम्मेदारी आपकी है। प्रस्तावना, संघर्ष और समाधान को पटकथा का त्रिक-बिंदु (Three Points of Screenplay) या पटकथा का प्रस्थान-बिंदु (Starting Point of Screenplay) भी कहते हैं। इसे समझने के लिए एक वर्कआउट करते हैं। इसे ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (DDLJ) फिल्म के सन्दर्भ में समझने की कोशिश करते हैं कि इस फिल्म की प्रस्तावना, संघर्ष और समाधान क्या हैं?
प्रस्तावना- लन्दन में रहने वाले एक भारतीय आप्रवासी बलदेव सिंह की इंट्रोवर्ट और आज्ञाकारी बेटी सिमरन और एक एक्सट्रोवर्ट मॉडर्न लड़के राज को यूरोप की एक टूर के दौरान एक-दूसरे से प्यार हो जाता है।
संघर्ष- भारतीय रीति-रिवाजों को दिल से मानने वाले बलदेव सिंह को यूरोपीय रहन-सहन से चिढ़ होती है, लिहाजा वे सिमरन की शादी अपने अपने दोस्त के बेटे से करवाने के लिए भारत चले आते हैं, तो दूसरी ओर राज अपने पिता की सलाह मानकर अपने प्यार सिमरन को पाने के लिए उनके पीछे भारत आ जाता है।
समाधान- राज और सिमरन का प्यार देखकर सिमरन की मां उन्हें भाग जाने के लिए कहती है, लेकिन राज कहता है कि वह बाबूजी के दिल में अपनी जगह बनाकर उनकी मर्जी से ही सिमरन को दुल्हन बनाएगा और आखिरकार राज और सिमरन की दीवानगी देखकर बलदेव सिंह को उनके प्रेम को स्वीकार करना पड़ता है।
पटकथा-लेखन सीखने के लिए होमवर्क
आपने आजतक ढे़र सारी फिल्में देखी होंगी। यदि आप पटकथा-लेखन सीखने के प्रति जरा भी गंभीर हैं, तो कृपया अपने पसंद की किन्हीं 10 फिल्मों को चुन लें और उन फिल्मों के कथानक की प्रस्तावना, संघर्ष और समाधान चिन्हित करें और लिखें। ऐसा करने के बाद आप पटकथा-लेखन के उस अध्याय को, जो फिल्म अप्रीशिएशन के स्टूडेंट छह महीने में सीखते है, आप कुछ दिनों में सीख जाएंगें।
पटकथा-लेखन सूत्र - 7: फिल्में देखें, कहानियां पढ़ें और उन्हें तीन प्वायंट ‘प्रस्तावना’, ‘संघर्ष’ और ‘समाधान’ के रुप में प्रस्तुत करें।
पटकथा कैसे लिखें - प्रेमिस (या प्रेमाइस) है पटकथा का आधार (पटकथा-लेखन सूत्र - 8, 9 व 10)
हमलोगों ने कथानक को समस्या, संघर्ष और समाधान में बांटने की एक सर्वमान्य लेखन-परंपरा की चर्चा की। इन तीन बिंदुओं के रूप में कथानक को प्रस्तुत करने का चलन सर्वथा नया नहीं है। स्कूली शिक्षा में हमें सिखलाया जाता है कि अपने प्रत्येक (आ)लेख को तीन भागों यानी शुरुआत (Opening), मध्य भाग (Body) और अंत (Ending) में बांटे। (आ)लेख-लेखन का यह सूत्र OBE (Opening-Body-Ending) या OBC (Opening-Body-Conclusion) के रूप में जाना जाता है।
ओपनिंग वाले हिस्से में जहां प्रस्तावना या विषय-वस्तु का परिचय होता है, बॉडी वाले भाग में विषय-वस्तु का वर्णन होता है, तो वहीं एंडिंग वाले पार्ट में विषय-वस्तु का निष्कर्ष या (आ)लेख का उपसंहार होता है। कमोबेश पटकथा-लेखन भी इसी अवधारणा पर नियोजित होती है। शायद सदियों से और आज भी स्कूल में (आ)लेख लिखने का यह प्रारूप जरूर सिखलाया जाता है। रोचक यह है कि इस रीति का पालन नहीं करने पर परीक्षक नंबर काट लेते हैं। अगर किसी आलेख के लिए 10 नंबर निश्चित है और किसी छात्र ने OBE के ढर्रे का पालन नहीं किया है, तो उसके 2-3 नंबर तो शर्तिया गए। सवाल है फिल्मी दुनिया में OBE के इस बहस से क्या मतलब है? मतलब है सरकार, बड़ा गहरा मतलब है। क्या यहां भी नंबर कटता है। जी, बिलकुल कटता है और 2-3 नंबर नहीं, पूरे-का-पूरा नंबर कट जाता है, मतलब ‘बच्चा पर्चा-फेल’!
पटकथा-लेखन के प्रस्थान-बिंदु यानी किसी कथानक को समस्या, संघर्ष और समाधान के रूप में प्रस्तुत करने की अवधारणा को फिल्मी लेखन की भाषा में ‘प्रेमाईस’ या ‘प्रिमाईस’ (Premise) कहते हैं। विद्वानों के अनुसार जैसे किसी कहानी को लिखने से पहले उसका ‘प्लॉट’ (Plot) लिखा जाता है, ठीक उसी तरह किसी पटकथा को लिखने से पहले उसका प्रिमाईस लिखना अनिवार्य है। संक्षेप में कहें, तो पटकथा का आधार, उसकी जमीन है- ‘प्रिमाईस’। लाख टके का सवाल कि एक कथानक को समस्या, संघर्ष और समाधान के रूप में क्यों बांटे यानी प्रिमाईस के रूप में क्यों लिखे, तो इनके जरा इन कारणों पर गौर करें।
एक- पटकथा के कथानक को समस्या, संघर्ष और समाधान में बांटना इसलिए जरूरी है, क्योंकि यह कथानक को उसकी थीम और दार्शनिक पृष्टभूमि से जोड़े रखता है। कथा और पटकथा के विस्तार के समय भटकाव की गुंजाइश लगभग नहीं के बराबर होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कथानक को दिशा और उसका आधार देता है, लिहाजा पटकथा कहीं से लचर नहीं होती है। कमजोर और लचर पटकथा यह आज के अधिकांश फिल्मों की एक सबसे बड़ी समस्या है। यहां तक यह समस्या आज तक की सबसे हिट, 500 करोड़ रुपये से अधिक कमाने वाली फिल्म ‘धूम रू 3’ (Dhoom:3) में भी देखने को मिली। इंटरवल के बाद लगभग 20 मिनट तक पटकथा काफी कमजोर दीखती है। एक सुपर-डुपर हिट फिल्म में 20 तो क्या 2 मिनट की कमजोर और लचर पटकथा भी अक्षम्य है।
दूसरा- कहानी को समस्या, संघर्ष और समाधान के रूप में बांटना इसलिए जरुरी है कि कथानक के साथ-साथ उपकथा, समांतर कथा, अवांतर कथा, घटनाओं और प्रतिघटनाओं का सीधा संबंध इन्हीं तीन बिन्दुओं से होता है। एक कथानक का सारा ताना-बाना इन्हीं तीन बिंदुओं के इर्दगिर्द घूमता है। जैसे ही यह ताना-बाना इस त्रिक-बिंदु से दूर होता है, पटकथा बिखरने लगती है।
तीसरा- प्रिमाईस कथानक के थीम (What), सब्जेक्ट (Who, Why, Where और When) और क्लाइमेक्स (Now what & How) को परिभाषा देता है। यह पटकथा के टैगलाइन जैसा होता है, जिसे पढ़ने मात्र से ही आगे के कथानक को जानने की बेचैनी और उत्सुकता बढ़ जाती है।
चैथा- एक अच्छा प्रिमाईस न केवल अच्छे कथानक और बेहतर पटकथा को आधार देता है, बल्कि यह कथा-पटकथा में पर्याप्त नाटकीयता भी लाता है।
पांचवां- हॉलीवुड, बॉलीवुड, टॉलीवुड या और भी जितने वुड्स हैं, वहां के प्रबुद्ध फिल्ममेकर्स (प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स आदि) के बीच थ्री प्वायंट्स ऑफ स्क्रीनप्ले यानी पटकथा का त्रिक-बिंदु ही प्रचलित है। फिल्म निर्माण की भाषा (शब्दावली) में, ये फिल्ममेकर्स “समस्या, संघर्ष और समाधान” या “प्रिमाइस” (Premise) को “टू मिनट मूवी” (Two-minute Movie) के रुप में ज्यादा जानते हैं।
टू मिनट मूवी
फिल्म-जगत में “टू मिनट मूवी” एक व्यवहारिक शब्दावली के साथ-साथ व्यवहारिक कार्यप्रणाली है। क्योंकि, फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के पास ज्यादा समय नहीं होता है कि घंटा, दो घंटा निकालें और किसी कहानी को आराम से सुनें या पढ़ें। कोई कथाकार या पटकथाकार जब किसी कहानी के सिलसिले में प्रोड्यूसर, निर्देशक या किसी फिल्म-मेकर या इन्वेस्टर से मिलता है, तो वे एक ही जुमला दोहराते हैं- ‘दो मिनट में बताइए, कहानी क्या है?’ यह प्रथा और जुमला कब से प्रचलित है, यह तो नहीं पता, लेकिन आज यह काफी चलन में है। इसलिए परंपरागत रुप से कहानी को थ्री प्वायंट्स ऑफ स्क्रीनप्ले यानी प्रिमाईस के रूप में में ढालना और कहने-सुनने की आदत डालना जरूरी है। और, सच बात तो यह है कि अगर कोई लेखक, पटकथा-लेखक या कथाकार किसी कहानी को दो मिनट में नहीं सुना सकता है, तो वह दो घंटे में भी नहीं सुना सकता है। ऐसे लोगों की जरुरत फिल्म इंडस्ट्री को भी नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि जो लोग फिल्में बनाते हैं, उनका पैसा, उनकी मेहनत, उनकी प्रतिष्ठा सब कुछ दांव पर लगी होती है। फिल्म हिट होती है, तो वे अर्श पर होते है, फिल्म पीटती या फ्लॉप होती है, तो वे फर्श पे नहीं बल्कि सड़क पर होते हैं। उनका समय बेशकीमती होता है। इसलिए जब भी अपनी कहानी लेकर उनसे मिलने जाएं, “टू मिनट मूवी” का होमवर्क जरुर कर लें। फिल्मी दुनिया में टू मिनट मूवी की स्थिति को कहावतों की बोली में कहें, तो यह मॉर्निंग शोज द डे (Morning shows the day) या पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगते हैं, की तरह है। इसलिए प्रिमाईस लेखन में कोताही एक पटकथा-लेखक के लिए आत्मघाती होता है। मतलब? जैसा कि ऊपर कहा है, आपकी पटकथा के परीक्षक ने आपका पूरे के पूरा नंबर काट लिया। मतलब यह कि कहानी का आइडिया, कथा-कहानी-पटकथा सब खारिज। वर्तमान में कोई प्रोड्यूसर, निर्देशक या कोई फिल्म-मेकर या इन्वेस्टर बड़ी मुश्किल से समय देता है या मिलता है। केवल तीन पंक्ति में प्रस्तुत एक प्रिमाईस के लिए वह अवसर हाथ से निकल जाए, तो आप और हम काहे को कथा-पटकथा लेखन सीखेंगे और काहे लिखेंगे!
पटकथा-लेखन सूत्र - 8: अपने स्कूल के दिनों (आ)लेख-लेखन का सूत्र व्ठम् या व्ठम् को केवल याद न रखें, बल्कि दुहरा-तिहरा लें और लेखन में इस्तेमाल करें।
पटकथा-लेखन सूत्र - 9: अपने पटकथा-लेखन की शुरुआत प्रिमाईस यानी टू-मिनट मूवी लेखन से करें, क्योंकि सिनेमा का मौलिक विषय-वस्तु और स्वरूप यहीं से तय होता है।
पटकथा-लेखन सूत्र - 10: फिल्में देखें, कहानी पढ़ें और उनमें प्रिमाईस यानी टू-मिनट मूवी के तत्व को खोजें, उसकी व्यवहारिक अवधारणा को समझें और उसे संक्षिप्त से संक्षिप्त रूप (तीन पंक्ति) में लिखें।
पटकथा कैसे लिखें - बॉलीवुड की खोज: वनलाईनर (पटकथा-लेखन सूत्र - 11)
एक कथा और पटकथा-लेखक के रूप में जब कोई कहानीकार एक कहानी का प्लॉट तैयार करता है, तो उसके जेहन में कुछ काल्पनिक दृश्य आते-जाते रहते हैं। फिर कहानी लिखनेवाला बड़े जतन से उन दृश्यों को एक के बाद एक क्रम में सहेजता है और लिख डालता है। इसी प्रकार, जब एक पटकथा-लेखक जब पटकथा लिखना शुरु करता है, तो ठीक ऐसी ही घटना उसके साथ भी होती है। उसके मस्तिष्क में पूरी कहानी दृश्य-दर-दृश्य, एक क्रम से, एक चलचित्र की तरह चलती जाती है। जिसे वह शब्दों का जामा पहनाकर एक पटकथा की शक्ल देता है। यहां यह जान लीजिए कि पटकथा-लेखक वह सौभाग्यशाली व्यक्ति या दर्शक है, जो एक फिल्म को सबसे पहले अपने दिमाग में देखता है और समझता है। पटकथा के एक अंग के रूप में वनलाईनर की अवधारणा नितांत अपने बम्बईया, अब मुम्बईया, पटकथाकारों के रचनात्मक दिमाग की उपज है। इसके महत्व और उपादेयता को समझते हुए पटकथा-लेखन का यह महत्वपूर्ण अंग अब हॉलीवुड फिल्मकारों को भी पसंद आने लगा है। तो, आईए जानते हैं कि वनलाईनर क्या है?
संक्षिप्त दृश्यमय कहानी
वनलाईनर किसी पटकथा की लगभग संवाद-विहीन संक्षिप्त दृश्यमय कहानी है। कहने का तात्पर्य यह कि जिस रुप में फिल्म को दिखानी होती है, यह (वनलाईनर) उसकी दृश्य-दर-दृश्य शाब्दिक प्रस्तुति है। अब सवाल यह है कि पटकथा लिखने से पहले वनलाईनर लिखना जरूरी है? जवाब है- जी हां, बहुत जरूरी है। क्योंकि, सबसे अहम बात यह कि इससे पूरी फिल्म की झलक मिल जाती है कि फिल्म कैसी दिखेगी या बनेगी। दूसरी अहम बात यह कि फिल्मी दुनिया में यह एक व्यवहारिक कार्यप्रणाली है। जैसा कि पिछले आलेखों में कह चुका हूं कि इस दुनिया से जुड़े लोगों के पास समयाभाव होता है। अक्सर प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स या खुद पटकथा-लेखक पूरी पटकथा के विस्तार और उसकी गहराई में नहीं जाना चाहते हैं। तब 100 या 120 पेज की पटकथा को अधिकतम चार-पांच पेज के रुप में लिख लिया जाता है, जो कि पटकथा का दृश्यवार विवरण यानी वनलाईनर होता है। तीसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि जिस तरह से एक अच्छा प्रिमाईस अच्छे कथानक और बेहतर पटकथा को जन्म देता है, कथा-पटकथा में पर्याप्त नाटकीयता भी लाता है। ठीक यही काम वनलाईनर का भी है, बल्कि इससे कई कदम आगे यह कथानक की दिशा, घटनाओं-परिघटनाओं की तारतम्यता और उसकी नाटकीयता को सटीक और प्रभावशाली ढंग से पेश करता है। चैथा कारण यह है कि कोई कथा या कहानी, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, विस्तार से पटकथा का आभास नहीं देती है। इसी प्रकार किसी कथा या कहानी पर आधारित पटकथा हू-ब-हू (शत-प्रतिशत) कथा या कहानी की प्रस्तुति नहीं होती है। यहां उस व्यवहारिक चैलेंज को समझिए, जो एक प्रोड्यूसर या डायरेक्टर के सामने आता है। कथा या कहानी से उसे पूरी फिल्म की झलक नहीं मिलती है और समयाभाव में पूरी पटकथा को वह पढ़ना नहीं चाहता है। लिहाजा वह बीच का रास्ता ’कथा-मिश्रित-पटकथा’ यानी वनलाईनर चाहता है। इसलिए वनलाईनर में कथा या कहानी और पटकथा दोनों के तत्वों का समावेश होता है अर्थात बिना सम्वाद कहानी और दृश्य को एक साथ लिखा जाता है।
पटकथा-लेखन सूत्र - 11: फिल्में देखें, कहानी पढ़ें और उसे दृश्यवार याद करें और क्रम से लिखने की कोशिश करें। जहां तक हो सके केवल घटनाओं को लिखें।
डायलॉग राइटर
गब्बर - तेरा क्या होगा कालिया
कालिया - सरकार मैंने आपका नमक खाया है।
गब्बर - तो अब गोली भी खा।
फिल्म शोले में डाकू गब्बर सिंह का ये डायलॉग उतना ही मशूहर हुआ जितना फिल्म ‘दीवार’ में विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शशि कपूर) जैसे दो भाईयों के ये डायलॉग।
विजय - आज मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तुम्हारे पास क्या है?
रवि - मेरे पास मां है
हाल ये है कि इन आज भी जब जब हिंदी सिनेमा में डाकू का जिक्र छिड़ता है, तो इन मशहूर डायलॉग्स की वजह से ही गब्बर सिंह का नाम सबसे पहले आता है। इसी तरह जब फिल्मों में मां का जिक्र छिड़ता है, सबसे पहले ‘मेरे पास मां है’ जैसा डायलॉग ही दोहराया जाता है। परदे पर इतने दमदार डायलॉग्स बोलते अभिनेताओं को तो हमने देखा, लेकिन इन डायलॉग्स को लिखने के पीछे छुपी थी, सलीम-जावेद जैसे संवाद लेखकों यानी डायलॉग राइटर्स की मेहनत। हिंदी सिनेमा के इन डायलॉग्स में आपको कहीं ममता की छांव मिलेगी, कहीं डाकू की बर्बरता तो कहीं स्टाइल का खजाना, जैसा कि सलमान खान की फिल्म वॉन्टेड का ये डायलॉग-‘एक बार जो मैने कमिटमेंट कर दी, उसके बाद तो मैं खुद की भी नहीं सुनता’
फिल्म के लिए पहले कहानी लिखी जाती है, फिर पटकथा और आखिर में संवाद (डायलॉग)। डायलॉग राइटर कहानी और पटकथा में संवाद जोड़कर उसके सिलसिले को आगे बढ़ाता है। लेकिन डायलॉग राइटर (संवाद लेखक) बनने के लिए आपमें कई खूबियां होनी चाहिए। आपमें किसी बात को बहुत कम शब्दों में कहने की कला आनी चाहिए, वो भी रोचक अंदाज में, जैसे- “मेरे पास मां है”
ये मशहूर डायलॉग था तो बहुत छोटा, लेकिन चार शब्दों में एक बेटे ने अपनी मां के लिए सारी ममता उड़ेल दी थी। अच्छे डायलॉग राइटर वहां कुछ भी लिखने से बचते हैं, जहां कलाकार अपने एक्स्प्रेशन (हाव भाव) से ही बहुत कुछ कह जाएं। आपको आज के चलन और लोगों की बदलती मानसिकता को भी समझना होगा। मुगल-ए-आजम जैसी फिल्मों के दौर में उर्दू भाषा में बड़े-बड़े डायलॉग्स का चलन था, लेकिन आज छोटे, सरल और चुटीले डायलॉग्स का जमाना है, इसीलिए हिंदी के साथ आप अच्छी अंग्रेजी भी जानते हैं, तो सोने पे सुहागा। अच्छी अंग्रेजी जानने पर आप अंग्रेजी डायलॉग राइटर के डायलॉग्स भी ट्रांसलेट कर सकते हैं। अगर आपकी उर्दू अच्छी है, तो ये पीरियड फिल्म के डायलॉग लिखने में काम आ सकती है। डायलॉग राइटर के रुप में आपको फिल्म के माहौल को समझ कर शब्द चुनने होंगे। किरदारों की सामाजिक, आर्थिक और मानसिक परिस्थितियां समझनी होंगी। किरदार पढ़ा लिखा है, या अशिक्षित, एन.आर.आई. है या ठेठ उत्तरप्रदेश का, इसी हिसाब से उसकी हिंदी का टोन बदलना होगा। डायलॉग राइटर बनने के लिए आपको किसी फिल्म डायरेक्टर या स्क्रिप्ट राइटर से संपर्क करना होगा। आप उसके असिस्टेंट के रुप में काम करते हुए भी आगे बढ़ सकते हैं। जहां तक वेतन का सवाल है, टीवी जगत में हर एपिसोड या शो के हिसाब से पैसा मिलता है, जबकि फिल्मी दुनिया में हर फिल्म के हिसाब से।
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